Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 369
________________ नयवाद ३३५ उत्तर देता है । उसका यह उत्तर नैगम नय की दृष्टि से ठीक है। इसी प्रकार जव कोई व्यक्ति किसी दुकान पर कपड़ा लेने के लिए जाता है और उससे कोई पूछता है कि तुम कहाँ जा रहे हो तो वह उत्तर देता है कि जरा कोट सिलाना है । वास्तव में वह व्यक्ति कोट के लिए कपड़ा लेने जा रहा है, न कि कोट सिलाने के लिए । कोट तो बाद में सिया जाएगा, किन्तु उस संकल्प को दृष्टि में रखते हुए वह कहता है कि कोट सिलाने जा रहा हूँ। ना है कि कोटगा, किन्तु उसकोट सिलाने के व्यक्ति संग्रह-सामान्य या अभेद का ग्रहण करने वाली दृष्टि संग्रह नय है । स्वजाति के विरोधी के विना समस्त पदार्थों का एकत्त्व में संग्रह करना, संग्रह कहलाता है। यह हम जानते हैं कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है, भेदाभेदात्मक है। इन दो धर्मों में से सामान्य धर्म का ग्रहण करना और विशेष धर्म के प्रति उपेक्षाभाव रखना संग्रह नय है । यह नय दो प्रकार का है-पर और अपर । पर संग्रह में सकल पदार्थों का एकत्त्व अभिप्रेत है। जीव अजीवादि जितने भी भेद हैं, सब का सत्ता में समावेश हो जाता है। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो सत् न हो। दूसरे शब्दों में जीवा-जीवादि सत्ता सामान्य के भेद हैं । एक ही सत्ता विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होती है । जिस प्रकार नीलादि प्राकार वाले सभी ज्ञान, 'जान-सामान्य' के भेद हैं, उसी प्रकार जीवादि जितने भी हैं, सव सत् हैं । पर संग्रह कहता है कि 'सव एक है, क्योकि सव मत् है।' सत्ता सामान्य की दृष्टि से सव का एकत्त्व में अन्तर्भाव हो जाता है । अपर संग्रह द्रव्यत्वादि अपर सामान्यों का ग्रहण करता है । सत्ता सामान्य, जो कि पर सामान्य अथवा महा मामान्य है, उसके समान्यरूप अवान्तर भेदों का ग्रहण करना, अपर संग्रह का कार्य है। मामान्य के दो १-जीवाजीवप्रभेदा यदन्त नास्तदस्ति सत् । एक यमा स्वनि निनानं जीवः स्वपर्ययः ।। -लघीयस्त्रय, २०५१ २-मर्दमेकं सदविशेषात् ।

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