Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 371
________________ जैन दर्शन में नयवाद ३३७ हो । इस नय का मुख्य प्रयोजन व्यवहार की सिद्धि है। केवल सामान्य के बोध से या कथन से हमारा व्यवहार नहीं चल सकता। व्यवहार के लिए हमेशा भेदबुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है । यह भेदबुद्धि परिस्थिति की अनुकूलता को दृष्टि में रखते हुए अन्तिम भेदतक बढ़ सकती है, जहाँ पुन: भेद न हो सके । दूसरे शब्दों में, वह अन्तिम विशेष का ग्रहण कर सकती है । व्यवहारगृहीत विशेष पर्यायों के रूप में नहीं होते, अपितु द्रव्य के भेद के रूप में होते हैं । इसलिए व्यवहार का विषय भेदात्मक और विशेषात्मक होते हुए भी द्रव्यरूप है, न कि पर्यायरूप । यही कारण है कि द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयों में से व्यवहार का समावेश द्रव्याथिक नय में किया गया है । नैगम, संग्रह और व्यवहार, इन तीनों नयों का द्रव्याथिक नय में अन्तर्भाव होता है । शेष चार नय पर्यायाथिक के भेद हैं। ऋजुसूत्र-भेद अथवा पर्याय की विवक्षा से जो कथन है वह ऋजुमूत्र नय का विषय है । जिस प्रकार संग्रह का विषय सामान्य अथवा अभेद है उसी प्रकार ऋजुसूत्र का विषय पर्याय अथवा भेद है । यह नय भूत और भविष्यत् की उपेक्षा करके केवल वर्तमान का ग्रहण करता है। पर्याय की अवस्थिति वर्तमान काल में ही होती है । भूत और भविष्यत् काल में द्रव्य रहता है। मनुष्य कई वार तात्कालिक परिणाम की ओर झुक कर केवल दर्तमान को ही अपना प्रवृत्ति-क्षेत्र बनाता है । ऐसी स्थिति में उसकी बुद्धि में ऐसा प्रतिभास होता है कि जो वर्तमान है वही सत्य है । भूत और भावी वस्तु से उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता । इसका अर्थ यह नहीं कि वह भूत और भावी का निषेध करता है । प्रयोजन के अभाव में उनकी ओर उपेक्षा-दृष्टि रखता है । वह यह मानता है कि वस्तु की प्रत्येक अवस्था भिन्न है। इस क्षण की अवस्था में और दूसरे क्षगा की १-व्यवहारानुकूल्पात प्रमागानां प्रमाणता। नान्यधा बाध्यमानानां जानानां तत्प्रसंगतः ।। ---लघीयन्त्रय, ३ा६७० 2प्राधान्यतोऽन्यि छन् ऋडननयो मतः।' । -~-लघीयत्रय, ३१९७१

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