Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 368
________________ ३३४ जैन दर्शन ग्रहण करता है, तो वह सम्पूर्ण वस्तु का ग्रहरण करता है, यह स्वतः सिद्ध है । यह शंका ठीक नहीं । सकलादेश में प्रधान गौर गौण भाव नहीं होता । वह समान रूप से सब धर्मों का ग्रहण करता है, जब कि नैगम नय में वस्तु के धर्मों का प्रधान और गौण भाव से ग्रहण होता है । धर्म और धर्मी का गौरण और प्रधान भाव से ग्रहण करना भी नैगम नय है । किसी समय धर्म की प्रधान भाव से विवक्षा होती है और धर्मी की गौरण भाव से । किसी समय धर्मी की मुख्य विवक्षा होती है और धर्म की गौरा । इन दोनों दशाओं में नैगम की प्रवृत्ति होती है । 'सुख जीव- गुण है' इस वाक्य में सुख प्रधान है, क्योंकि वह विशेष्य है और जीव गौरण है क्योंकि वह सुख का विशेषण है । यहाँ धर्म का प्रधान भाव से ग्रहण किया गया है और धर्मी का गौरण भाव से । 'जीव सुखी है' इस वाक्य में जीव प्रधान है, क्योंकि वह विशेष्य है और सुख गौण है, क्योंकि वह विशेषरण है । यहाँ धर्मी की प्रधान भाव से विवक्षा है और धर्म की गौण भाव से ' । कुछ लोग नैगम को संकल्पमात्रग्राही मानते हैं । जो कार्य किया जाने वाला है, उस कार्य का संकल्पमात्र नैगम नय है | उदाहरण के लिए एक पुरुष कुल्हाड़ी लेकर जंगल में जा रहा है । मार्ग में कोई व्यक्ति मिलता है और पूछता है - 'तुम कहाँ जा रहे हो ?' वह पुरुष उत्तर देता है- 'मैं प्रस्थ लेने जा रहा हूँ ।' यहाँ पर वह पुरुष वास्तव में लकड़ी काटने जा रहा है । प्रस्थ तो बाद में बनेगा । प्रस्थ के संकल्प को दृष्टि में रखकर वह पुरुष उपर्युक्त ढंग से १ - यद्वा नैकगमो नैगमः, धर्मधर्मिणोगुणप्रधानभावेन विषयीकरणात् । 'जीवगुणः सुखम्' इत्यत्र हि जीवस्याप्राधान्यम् विशेषणत्वात्, सुखस्य तु प्राधान्यम्, विशेष्यत्वात् । 'सुखी जीवः' इत्यादी तु जीवस्य प्राधान्यम्, न सुखादेः, विपर्ययात् । - नयप्रकाशस्तववृत्ति. पृ० १० २ - अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । - तत्त्वार्थराजवार्तिक १।३।२

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