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जैन दर्शन
को सामान्यग्राही मानने का अर्थ केवल इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म झलकता है जब कि ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म की ओर प्रवृत्ति रहती है । इसका यह अर्थ नहीं कि सामान्य का तिरस्कार करके विशेष का ग्रहण किया जाता है अथवा विशेष को एक ग्रोर फेंककर सामान्य का सम्मान किया जाता है । वस्तु में दोनों धर्मों के रहते हुए भी उपयोग किसी एक धर्म का मुख्य रूप से ग्रहण कर सकता है । यदि ऐसा न होता तो हम सामान्य और विशेष का भेद ही नहीं कर पाते । उपयोग में धर्मों का भेद हो सकता है, वस्तु में नहीं । उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद किसी भी तरह व्यभिचारी नहीं है ।
ज्ञान और दर्शन में क्या भेद है, इसका विवेचन हो चुका । ग्रव यह देखेंगे कि काल की दृष्टि से दोनों का क्या सम्बन्ध है ? जहाँ तक छद्मस्थ अर्थात् सामान्य व्यक्ति का प्रश्न है, सभी श्राचार्य एकमत हैं कि , दर्शन और ज्ञान युगपद् न होकर क्रमशः होते हैं । हाँ, केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद है । केवली में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, इस प्रश्न के विषय में तीन मत हैं । एक मत के अनुसार दर्शन श्रौर ज्ञान क्रमशः होते हैं । दूसरी मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं। तीसरा मत यह है कि ज्ञान और दर्शन में अभेद है—दोनों एक हैं ।
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आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि केवली के दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते' । आगम इस विषय में एकमत हैं । वे दर्शन और ज्ञान को युगपद् नहीं मानते ।
दिगम्बर आचार्य दूसरी मान्यता का समर्थन करते हैं । इस विषय में वे सभी एकमत हैं कि केवलदर्शन श्रौर केवलज्ञान युगपद् होते हैं । उमास्वाति का कथन है कि मति, श्रुत आदि में उपयोग क्रम से होता है, युगपद् नहीं । केवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण
१ - ' सव्वस्स के व लिस्स वि जुगवं दो नत्थि उवओोगा', ६७३ २ - भगवतीसूत्र, १८१८