________________
दर्शन, जीवन और जगत् दानिक होने का अर्थ विचारक होना तो है ही, साथ-साथ ही यह समझना भी है कि जीवन का उन विचारों के साथ कितना सामंजस्य है ? जीवन के मल तत्त्वों पर उनका क्या प्रभाव है ? जीवन की मौलिषता से वे कितने मिले हए है ? उनकी शैली जीवन को कितनी गति प्रदान करती है ? वृत्तियों के नियन्त्रण में उनका कितना हाथ रहता है ? इन सारे प्रश्नों का चिन्तन ही सच्चे विचारक की 'कसौटी है। सच्चा दार्शनिक जीवन के इन मौलिक तत्त्वों व प्रश्नों को अाधार बना कर ही अपने चिन्तन क्षेत्र में ग्रागे बढ़ता है और बढ़ता-बढ़ता यहाँ तक बढ़ जाता है कि चिन्तन की सीमा को साहस के साथ पार करता हुया बहुत दूर निकल जाता है, जहाँ से वापिस लोटना संभव नहीं। चिन्तन व मनन के नियन्त्रित क्षेत्र को पार कर जीवन का साक्षात्कार करता हुआ न जाने कहाँ चला जाता है ? जाता हुआ दिखाई देता है, किन्तु कहाँ जाता है, इसका पता नहीं लगता। जगत् का स्वरूप :
दर्शन और जीवन का सम्बन्ध समझ लेने के पश्चात् हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि जिस जगत् में हमारा जीवन व दर्शन फलता-फलता है, उस जगत् का स्वरूप भी समझे । जगत् का स्वरूप समभते ममय हमें यह भी मालूम हो जायगा कि व्यक्ति के जीवन वा जगत् के साथ क्या सम्बन्ध है। जीवन और जगत् का मम्बन्ध ज्ञात हो जाने पर दर्शन का जगत् के मूल्यांकन में कितना हाध है, यह भी समझ में या जायगा । दर्शन के क्षेत्र में जगत् का विलेपण करने वाली दो मुख्य विचारधाराएँ हैं । एक विचारधारा पधाधंवाद के नामले प्रसिद्ध है यार दूसरी विचारधारा आदर्शवाद के रूप में जानी जाती है । यथार्थवाद और आदर्शवाद का झगड़ा कोई नया नहीं है । यह भगड़ा बहुत लम्बे काल से चला बारहा है। इल नग का मुख्य प्राधार भौतिक सत्ता (Material Existence) है। हाल ही की वैज्ञानिक शोधों ने इस भागड़े को और प्रोत्साहन प्रदान किया है। जड या भूत के स्वरूप और जगत् की रचना के.