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जैन-दर्शन
दानों के साथ-साथ इन्द्रिय की भी मर्यादाएँ होती हैं। यदि वास्तव में स्वतन्त्र रूप से बाह्य पदार्थ न हो तो ये सारी सीमाएँ व्यर्थ हो जाएँगी। भ्रम, स्वप्न या अन्य किसी विकृत अवस्था का उदाहरण देकर इस सत्य को अन्यथा सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन सब अवस्थाओं का वास्तविक आधार साधारण और जाग्रत अवस्था है । जब तक हम यह नहीं समझ लेते कि हमारी जाग्रत दशा का साधारण और अविकृत ज्ञान या अनुभव सच्चा हैयथार्थ है-तब तक हमें यह कहने का कोई अधिकार नहीं कि स्वप्न या भ्रमावस्था का विकृत ज्ञान झूठा है-अयथार्थ हैमिथ्या है-भ्रम है। जाग्रत दशा का ज्ञान हमें स्पष्ट रूप से यह बताता है कि हमारे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय बाह्य पदार्थ है जो, आध्यात्मिक या विचारमात्र न होकर भौतिक स्वभाव वाला है। मेरे चक्षुरिन्द्रिय-प्रत्यक्ष-का विषय, जिसे मैं गुलाब का फल कहता हूँ, आध्यात्मिक या विचारमात्र न होकर भौतिक स्वभाव वाला है। यदि उसकी भौतिक रूप सत्ता न होती, तो मैं किसी भी जगह, किसी भी समय, किसी भी इन्द्रिय से उसका प्रत्यक्ष कर लेता । वह मेरी चक्षुरिन्द्रिय की मर्यादाओं से सीमित न होता, उसी प्रकार मेरी चक्षुरिन्द्रिय भी उसकी सीमाओं से मर्यादित न होती। ज्ञान और पदार्थ, विषयी और विषय, ज्ञाता और ज्ञेय-इन सारी समस्याओं का संतोषजनक समाधान यही है कि जगत् में एक ही तत्त्व नहीं है, अपितु अनेक तत्त्व हैं।
दूसरी बात यह है कि एक ही वस्तु अनेक व्यक्तियों के ज्ञान का विषय बनती है । यदि उस वस्तु की स्वतन्त्र भौतिक सत्ता नहीं है तो यह कैसे संभव हो सकता है ? उदाहरण के तौर पर, मेरे सामने एक मेज पड़ी हुई है। जिस समय मैं उस मेज को देख रहा हूँ, उस समय मेरे पास बैठे हुए दो मित्र भी उसी मेज को देख रहे हैं । नपने पर यह भी निश्चित हो रहा है कि जितनी दूरी मेरे सामने से है ठीक उतनी ही दूरी उनके सामने से भी है, क्योंकि हम लोग बिलकुल सीधी पंक्ति में बैठे हुए हैं। रंग भी प्रायः एकसा दिखाई दे रहा है । (प्रायः इसलिए कि रंग का कोई बाह्य नापतोल