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दर्शन, जीवन और जगत् कुछ सन्तोष प्राप्त हो, इस दृष्टि से कहीं-कहीं ब्रह्म का वर्णन करते समय उसे नित्य, अपरिवर्तनशील, शाश्वत, अनन्त, निरपेक्ष आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है । वह न तो उत्पन्न होता है, न मरता है, न वह किसी का आश्रय है, न उसका कोई आधार है, वह अज है, नित्य है, शाश्वत है, पुराण है, न उसे कोई मार सकता है, न वह किसी को मार सकता है । यह अात्म तत्त्व या ब्रह्म तत्त्व स्वयंसिद्ध है, क्योंकि सिद्धि और असिद्धि दोनों ही की सिद्धि उसकी सिद्धि के विना असिद्ध है।
यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि यदि अत वेदान्त का यह अन्तिम तत्त्व नित्य और अपरिवर्तनशील है, तो फिर जगत् के सारे पदार्थ प्रतिक्षण बदलते क्यों रहते हैं ? इस कठिनाई को दूर करने के लिए अद्वैत वेदान्त तत्त्व को तीन रूपों में देखता है
१-व्यावहारिक सत्ता। २-प्रातिभासिक सत्ता । ३-पारमार्थिक सत्ता।
जाग्रत अवस्था का साधारण ज्ञान व्यावहारिक सत्ता का प्रतीक है । व्यावहारिक सत्ता की दृष्टि से हमारा साधारण ज्ञान सच्चा है, अथवा यों कहिए कि जाग्रत अवस्था के ज्ञान के विषयीभूत पदार्थों की व्यावहारिक सत्ता है । भ्रमावस्था में जो पदार्थ प्रतिभासित होते हैं उनकी प्रातिभासिक सत्ता है। इस सत्ता का व्यावहारिक सत्ता से खण्डन हो जाता है । ब्रह्म की सत्ता पारमार्थिक सत्ता है अर्थात् ब्रह्म ही अन्तिम सत्ता है-यात्मा ही निरपेक्ष तत्त्व है । जाग्रत दशा की सत्ता इस सत्ता से बाधित हो जाती है । इस सत्ता से बढ़कर दूसरी कोई ऐसी सत्ता नहीं है, जिससे यह बाधित हो, क्योंकि यही सबसे बड़ी है-अनन्त है-निरपेक्ष हैएक है-सर्वव्यापी है। इसी तत्त्व को 'प्रपंचस्य एकायनम्' और 'भूमा' भी कहा गया है । यद्यपि यह सब का आधार है, किन्तु अपने
१-वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली, पृष्ठ २५ । २-प्रपंचस्यैकायनमनन्तरमबाह्य कृत्स्नं.........
- शांकरभाष्य, १ । ४ । ६ । १६