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३.६ ं
जैन-दर्शन
समझने के लिए, यह जानना जरूरी है कि धर्म क्या है, उसके साधन क्या हैं, धर्माभास और साधनाभास क्या हैं, धर्म का अन्तिम प्रयोजन कैसे पूर्ण किया जा सकता है, मतभेद और विवाद में पड़े हुए धर्म का उद्धार कैसे किया जा सकता है ? श्रादि । इन प्रश्नों की मीमांसायुक्ति-युक्त परीक्षा का नाम ही दर्शन है । यद्यपि मीमांसाशास्त्र का साक्षात् सम्बन्ध कर्मकाण्ड से है, इतना होते हुए भी उसका ग्रन्तिम लक्ष्य वही है जो अन्य भारतीय दर्शनों का है ।
वेदान्त - 'मीमांसासूत्र' में जो पहला सूत्र है, ठीक वही सूत्र 'ब्रह्मसूत्र' में भी है, अन्तर केवल इतना ही है कि पहले में धर्म शब्द है और दूसरे में ब्रह्म शब्द । वेदान्त का प्रयोजन है ब्रह्मज्ञान । वह ब्रह्म कैसा
? कोई भी वस्तु जिसके अधिकार के बाहर नहीं है, जो सब कुछ है, सब कुछ जिसमें है । जिसका स्वरूप चेतना है, जो चित्शक्ति रूप है, जो आत्मा ही है । ब्रह्म को जानने का अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म एक अलग पदार्थ है, और जानने वाला एक अलग तत्त्व है । ब्रह्म को जानने वाला स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है । वहाँ ज्ञाता और ज्ञेय का कोई भेद नहीं रहता । शांकर वेदान्त का कथन है कि भेद ही सर्व दुःखों का मूल है । जहाँ द्वैत रहता है वहीं दुःख रहता है । ही सच्चा सुख है ।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय परम्परा की साधना का मुख्य प्रयोजन दुःखमुक्ति है: । चार्वाक की दृष्टि भौतिकवादी है । उसका मुख्य लक्ष्य भौतिक सुख की वृद्धि करना है । इसी जन्म में अधिक-से-अधिक सुख का भोग करना उसे इष्ट है । वह इसी सुख को जीवन - लक्ष्य समझता है । दर्शनशास्त्र का जन्म इसीलिए होता है किं वह हमारे इस ध्येय को गति प्रदान करता है | दर्शन शास्त्र हमारे लिए ऐसी व्यवस्था करता है जिसके आधार पर हमें अधिकसे-अधिक सुख मिलता है । जैन दर्शन की धारणा अनन्त सुख की प्राप्ति की है ही । पुद्गल तत्त्व को आत्म-तत्त्व से सर्वथा विच्छिन्न कर देना, यही सबसे बड़ा सुख है । जब तक ये दोनों तत्त्व एक दूसरे से सर्वथा अलग नहीं हो जाते, अनन्त सुख की प्राप्ति या प्रादुर्भाव ग्रसम्भव है । अनादि काल से एक दूसरे से मिले हुए ये दोनों तत्त्व किस