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जैन आचार
। अत. शील भी विज्ञप्ति व अविज्ञप्ति रूप दो प्रकार का है । वौद्ध दर्शन के अनुसार प्रत्येक क्रिया के तीन भाग होते हैं : प्रयोग, कर्मपथ और पृष्ठ । क्रिया को तैयारी करना प्रयोग है। वास्तविक क्रियाकर्मपथ है । अनुगामिनी क्रिया का नाम पृष्ठ है । उदाहरण के रूप मे चोरी को ले । जब कोई चोरी करना चाहता है तो अपने स्थान से उठता है, आवश्यक साधन-सामग्री लेता है, दूसरे के घर जाता है, चुपचाप घर मे घुसता है, रुपयेपैसे व अन्य वस्तुए दूढता है और उन्हें वहां से उठाता है । यह सव प्रयोग के अन्तर्गत है । चोरी का सामान लेकर वह घर से वाहर निकलता है, यही कर्मपथ है । उस सामान को वह अपने साथियो मे बाटता है, बेचता है अथवा छिपाता है, यह पृष्ठ है । ये तीनो प्रकार विज्ञप्ति व अविज्ञप्तिरूप होते हैं । इतना ही नही, एक प्रकार का कर्मपथ दूसरे प्रकार के कर्मपथ का प्रयोग अथवा पृष्ठ बन सकता है । इसी प्रकार अन्य पापो एव शुभ क्रियाओ के भी तीन विभाग कर लेने चाहिए । वस्तुत प्रयोग, कर्मपथ व पृष्ठ प्रवृत्ति की अथवा आचार की तीन अवस्थाएं हैं । इन्हें प्रवृत्ति के तीन सोपान भी कह सकते है । किस प्रकार की प्रवृत्ति अर्थात् कर्म से किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, इसका भी बौद्ध साहित्य मे पूरी तरह विचार किया गया है । वह विचार वौद्ध आचारशास्त्र की भूमिकारूप है ।
जैनाचार व जैन विचार :
जैनाचार की मूल भित्ति कर्मवाद है । इसी पर जैनो का