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जैन आचार ग्रन्थ : ७९
जिस प्रकार कि साधुसंस्था। यदि ऐसा न होता तो मूलाचार के सामाचाराधिकार मे श्रमणियो के कल्प का प्रसंग उपस्थित न होता। शिवार्यकृत मूलाराधना मे भी संयतियो के लिये आर्यिका-सगति के त्याग का उपदेश है। इससे भी साध्वी-संस्था की मान्यता सिद्ध होती है। चतविध संघ की सिद्धि के लिये ऐसा होना अनिवार्य भी है।