Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 227
________________ श्रमण-सव : २१३ अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन अर्थात् अर्ध-उपवास समझना चाहिए। इस प्रकार गुरुमासिक आदि तप-प्रायश्चित्त के ही भेद हैं। अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली मे डालना, पुष्पादि सूचना, पात्र आदि दूसरो से साफ करवाना, सदोप आहार का उपयोग करना आदि क्रियाएं गुरुमासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं । दारुदण्ड का पादप्रोछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की। प्रशसा करना, निष्कारण परिचित घरो मे प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ की सगति करना, शय्यातर अर्थात् अपने ठहरने के मकान के मालिक के यहाँ का आहार-पानी ग्रहण करना आदि क्रियाएं लघुमासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। स्त्री अथवा पुरुष से मैथुनसेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना, नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना, स्तन आदि हाथ मे पकड़ कर हिलाना अथवा मसलना, पशु-पक्षी को स्त्रीरूप अथवा पुरुषरूप मानकर उनका आलिंगन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचेल होकर सचेल के साथ रहना अथवा सचेल होकर अचेल के साथ

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