Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 229
________________ श्रमण-सघ : २१५ इसका कारण परिस्थिति की भिन्नता, अपराधी की भावना एवं अपराध की तीव्रता-मंदता है। ऊपर से समान दिखाई देने वाले दोप में परिस्थिति की विशेषता एव अपराधी के आशय के अनुरूप तारतम्य होना स्वाभाविक है। इसी तारतम्य के अनुसार अपराध की तीव्रता-मदता का निर्णय कर तदनुरूप दण्ड-व्यवस्था की जाती है। अतः एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त देने में किसी प्रकार का विरोध नही है। ___सामान्यतया प्रायश्चित्त प्रदान करने का अधिकार आचार्य को होता है। परिस्थितिविशेष को ध्यान में रखते हुए अन्य अधिकारी भी इस अधिकार का उपयोग कर सकते हैं। अपराधविशेष अथवा अपराधीविशेष को दृष्टि में रखते हए सम्पूर्ण संघ भी एतद्विषयक आवश्यक कार्यवाही कर सकता है। इस प्रकार प्रायश्चित्त देने का अथवा प्रायश्चित्त के निर्णय का कार्य परिस्थिति, अपराध एवं अपराधी को दृष्टि में रखते हुए आचार्य, अन्य कोई पदाधिकारी अथवा सकल श्रमण-सघ सम्पन्न करता है।

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