Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 197
________________ श्रमण-धर्म · १८३ जव श्रमण- श्रमणियों को अपना वसति-स्थान छोड़ कर अन्यत्र विहार करना हो तो प्रातिहारिक अर्थात् वापस देने योग्य उपकरण स्वामी को सौंपे विना प्रस्थान नही करना चाहिए। इतना ही नहीं, शय्यातर अर्थात् मकानमा लिक के शय्या-संस्तारक को अपने लिए जमाये हुए रूप मे ही न छोडते हुए यथोचित रूप से व्यवस्थित करने के बाद स्थान छोड़ना चाहिए। जिस दिन कोई श्रमण अथवा श्रमणियाँ वसति, संस्तारक आदि का त्याग करें उसी दिन अन्य श्रमण अथवा श्रमणियां वहाँ आकर ठहर जायं तो भी उस दिन के लिए उस स्थान आदि पर पहले के श्रमण-श्रमणियों का ही अवग्रह अर्थात् अधिकार बना रहता है। दूसरे शब्दों में एक श्रमण-वर्ग के अधिकार की वस्तु पर दूसरा श्रमण-वर्ग तव तक अपना अधिकार न समझे जव तक कि उसका त्याग किये एक दिन व्यतीत न हो जाय । श्रमण-श्रमणियों को किसी स्थान पर रहते हुए चारों ओर सवा योजन अर्थात् पाँच कोस की मर्यादा रखना कल्प्य है। यह मर्यादा किसी प्रयोजन से कही जाने-आने के लिए समझनी चाहिए । इस सामान्य मर्यादा मे कार्यविशेष अथवा परिस्थितिविशेष की दृष्टि से आवश्यक परिवर्तन भी किया जा सकता है । सामाचारी: सामाचारी अथवा समाचारी का अर्थ है सम्यक् चर्या । श्रमण की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ? इस प्रश्न का जैन आचारशास्त्र में व्यवस्थित उत्तर दिया गया है। यह उत्तर दो रूपो मे

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