Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 219
________________ श्रमण-संघ • २०५ तृतीय उद्देश मे उपाध्याय-पद की योग्यताओ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार में कुशल है, सयम मे सुस्थित है, प्रवचन मे प्रवीण है, प्रायश्चित्त प्रदान करने में समर्थ है. गच्छ के लिए क्षेत्रादि का निर्गय करने मे निष्णात है, निर्दोष आहारादि की गवेषणा में निपुण है, सक्लिष्ट परिणामो-भावो से अस्पष्ट है, ‘चारित्रवान् है, वहुश्रुत है वह उपाध्याय-पद पर प्रतिष्ठित करने योग्य है। प्रवर्तक, स्थविर, गणो, गणावच्छेदक व रत्नाधिक : प्रवर्तक का मुख्य कर्तव्य साधु-साध्वियों को श्रमणाचार की प्रवृत्ति मे प्रवृत्त करना एव तद्विषयक शिक्षा देना है। प्रवर्तक श्रमण-सघ का प्राचाराधिकारी होता है। वह आचार व विचार दोनो मे कुशल होता है। ___ स्थविर (वृद्ध) तीन प्रकार के कहे गये है जाति-स्थविर, सूत्र-स्थविर और प्रव्रज्या-स्थविर । साठ वर्ष की आयु होने पर श्रमण जाति-स्थविर होता है । स्थानागादि सूत्रो का ज्ञाता साधु सूत्र-स्थविर कहलाता है। दीक्षा ग्रहण करने के वीस वर्ष बाद अर्थात् वीस वर्ष की दीक्षापर्याय होजाने पर निग्रन्थ प्रव्रज्यास्थविर कहलाने लगता है। स्थविर का मुख्य दायित्व श्रमणसघ मे प्रविष्ट होने वाले निग्रन्थ-निर्गन्थियों को श्रमणधर्मोपयोगी 'प्रारभिक शिक्षा प्रदान करना है। गणी का मुख्य कार्य अपने गंण को सूत्रार्थ देना अर्थात्

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