Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 217
________________ श्रमण-संघ : २०३ आदि पूज्य पुरुषों की अनुपस्थिति में विचरण न करें और न कही रहे हो। व्यवहार सूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि ग्रामानुग्राम विचरते हुए यदि अपने गण के आचार्य की मृत्यु हो जाय तो अन्य गण के आचार्य को प्रधान के रूप मे अंगीकार कर रागद्वेषरहित होकर विचरण करना चाहिए । यदि उस समय कोई योग्य आचार्य न मिल सके तो अपने मे से किसी। योग्य साधु को प्राचार्य की पदवी प्रदान कर उसकी आज्ञा के । अनुसार आचरण करना चाहिए । इस प्रकार के योग्य साधु का । भी अभाव हो तो जहाँ तक अपने अमुक सार्मिक साधु न मिल जाय वहाँ तक मार्ग मे एक रात्रि से अधिक न ठहरते हुए लगातार विहार करते रहना चाहिए। रोगादि विशेष कारणो से कहो अधिक ठहरना पड जाय तो कोई हानि नही। वर्षाऋतु के दिनो मे आचार्य का अवसान होने पर भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए। इस प्रकार की विशेष परिस्थिति मे वर्षाकाल मे भी विहार विहित है।। निर्गन्थियों के विषय मे व्यवहार सत्र के सप्तम उद्देश मे । बताया गया है कि तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले निग्रन्थ को तीस वर्ण की दीक्षापर्याय वाली निर्ग्रन्थी उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। इसी प्रकार पाच वर्ष को दीक्षापर्याय वाले निग्रन्थ को साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली निन्थी आचार्य अथवा उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। तात्पर्य यह है कि साधु-साध्वियो को बिना आचार्यादि के नियन्त्रण के स्वच्छन्तापूर्वक नही रहना चाहिए ।

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