Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 216
________________ २०२ : जैन आचार उपाध्याय, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक आदि को पदवी प्रदान की जा सकती है | ये सामान्य नियम हैं । अपवाद के तौर पर तो विशेष कारणवशात् सयम से भ्रष्ट हो पुन. श्रमणाचार अंगीकार करने वाले निर्ग्रन्थ को एक दिन की दीक्षापर्याय वाला होने पर भी आचार्यादि पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है । इस प्रकार का निर्ग्रन्थ संस्कारो की दृष्टि से सामान्यतया प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत एवं बहुमत कुल का होना आवश्यक है । इतना ही नही, उसमे खुद मे प्रतीति, धैर्य, समभाव प्रादि स्वकुलोपलव्ध गुणो का होना जरूरी है। सूत्रों का ज्ञान तो आवश्यक है ही । इस प्रकार का निर्ग्रन्थ कुलसम्पन्न एवं गुणसम्पन्न होने के कारण अपने दायित्व का सम्यक्तया निर्वाह कर सकता है । मैथुन सेवन करने वाले श्रमण को आचार्य आदि की पदवी प्रदान करने का निषेध करते हुए कहा गया है कि जो गच्छ से अलग हुए बिना अर्थात् गच्छ मे रहते हुए ही मैथुन मे आसक्त हो उसे जीवनपर्यन्त आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी एवं गणावच्छेदक की पदवी देना निषिद्ध है । गच्छ का त्याग कर मैथुन सेवन करने वाले को पुनः दीक्षित हो गच्छ मे सम्मि लित होने के बाद तीन वर्ष तक आचार्यादि की पदवी प्रदान करना निषिद्ध है । तीन वर्ष व्यतीत होने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शान्त हो, कषायादि का अभाव हो तो उसे आचार्य आदि के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है । श्रमण-श्रमणियो के लिए यह आवश्यक है कि वे आचार्य

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