Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 224
________________ २१० : जैन आचार लिए दण्डव्यवस्था आवश्यक है। किसी भी व्यवस्था के लिए चार बातों का विचार आवश्यक माना जाता है: १. उत्सर्ग, २. अपवाद, ३. दोष, ४. प्रायश्चित्त । किसी विषय का सामान्य अथवा मुख्य विधान उत्सर्ग कहलाता है। विशेष अथवा गौण विधान का नाम अपवाद है। उत्सर्ग अथवा अपवाद का भंग दोप कहलाता है। दोष से सम्बन्धित दण्ड को प्रायश्चित्त कहते है। प्रायश्चित्त से लगे हुए दोषों की शुद्धि होने के साथ ही साथ नये दोषों की भी कमी होती जाती है। यही प्रायश्चित्त की उपयोगिता है। यदि प्रायश्चित्त से न तो लगे हुए दोषों की शुद्धि हो और न नये दोषो की कमी तो वह निरर्थक है-निरुपयोगी है। जीतकल्प सूत्र मे निर्ग्रन्थ-निग्रंथियों के लिए दस प्रकार के प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है : १ आलोचना, २ प्रतिक्रमण, ३. उभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक । इन दस प्रकारो में से अन्तिम दो प्रकार चतुर्दशपूर्वधर (प्रथम भद्रबाहु ) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका विच्छेद हो गया-व्यवहार बंद हो गया। मूलाचार के पंचाचार नामक पंचम अधिकार मे भी प्रायश्चित्त के दस ही प्रकार बताये गये हैं। उनमे अन्तिम दो के सिवाय सव नाम वही हैं जो जीतकल्प मे हैं । अन्तिम दो प्रकार परिहार व श्रद्धान के रूप मे हैं। सभवत. अन्तिम दो प्रायश्चित्तो का व्यवहार बंद हो जाने के कारण यह अन्तर हो गया हो।। आहारादिग्रहण, वहिनिर्गम, मलोत्सर्ग आदि प्रवृत्तियो मे

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