Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 214
________________ २०० : जैन आचार मे पुन. गण में सम्मिलित होना चाहे तो उसे आलोचना आदि (प्रायश्चित्त) करवाकर प्रथम दीक्षा का छेद अर्थात् भंग कर नई दीक्षा अंगीकार करवानी चाहिए। जो नियम सामान्य एकलविहारी निग्रन्थ के लिए है वही एकलविहारी गणावच्छेदक, उपाध्याय, आचार्य आदि के लिए भी है। गच्छ, कुल, गण व संघ : श्रमण-सघ के मूल दो विभाग है : साधुवर्ग व साध्वीवर्ग। सख्या की विशालता को दृष्टि में रखते हुए इन वर्गों को अनेक उपविभागो मे विभक्त किया जाता है। जितने साधुनो व साध्वियो की सुविधापूर्वक देख-रेख व व्यवस्था की जा सके उतने साधु-साध्वियो के समूह को गच्छ कहा जाता है। इस प्रकार के गच्छ के नायक को गच्छाचार्य कहते है। गच्छ के साधुओ अथवा साध्वियो की संख्या बडी होने पर उनका विभिन्न वर्गों मे विभाजन किया जा सकता है । इस प्रकार के वर्ग मे कम से कम कितने साधु हो, इसका विधान करते हुए व्यवहार सूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि हेमन्त तथा ग्रीष्म ऋतु मे आचार्य एव उपाध्याय के साथ कम से कम एक अन्य साधु रहना चाहिए । अन्य वर्गनायक, जिसे जैन परिभापा मे गणावच्छेदक कहते हैं, के साथ हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु मे कम से कम दो अन्य साधु रहने चाहिए । वाऋतु मे आचार्य एवं उपाध्याय के साथ दो तथा गणावच्छेदक के साथ तीन अन्य साधुओ का रहना अनिवार्य है। पंचम उद्देश मे साध्वियो की

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