Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 195
________________ श्रमण-धर्म : १८१ __ जो स्थान हिसादि दोषो से रहित हो तथा जहाँ रहकर सयम की सम्यकतया आराधना की जासके वही स्थान निग्रन्थ-निर्गन्थियो के लिए कल्प्य है । इस प्रकार के स्थान मे ठहरने के पूर्व स्वामी की निष्कपट भाव से अनुमति लेना अनिवार्य है । स्वामी की अनिच्छा अथवा निषेध होने की स्थिति मे वह स्थान नही लेना चाहिए अथवा छोड देना चाहिए । संस्तारक आदि अन्य सामग्री के विषय मे भी यही नियम है। संयमी को किसी भी स्थान मे ठहरने के पूर्व मलमूत्र के त्याग का विचार अवश्य कर लेना चाहिए। एतद्विषयक स्थान पहले से ही यथावत् देख लेना चाहिए ताकि बाद में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। पूरी सावधानी रखते हुए भी सम या विषम जैसा भी स्थान आदि मिले, समभावपूर्वक उपयोग मे लेना चाहिए । संयम की किसी प्रकार से विराधना न हो, इसका पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। निग्रन्थ-निर्गन्थियो के एक स्थान पर रहने के समय का दो दृष्टियों से विचार किया गया है। वर्षाऋतु मे वे एक स्थान पर चतुर्मासपर्यन्त रहते हैं। शेष आठ महीनो मे उन्हे एक स्थान पर एक साथ एक मास से अधिक रहना अकल्प्य है। बृहत्कल्प सूत्र के प्रथम उद्देश मे एतद्विषयक स्पष्ट विधान किया गया है। उसमे यह भी बतलाया गया है कि यदि ग्राम, नगर आदि अन्दर व बाहर के भागो मे बंटे हुए हों तो दोनो मे अलग-अलग अधिकतम समय तक रहा जा सकता है। अन्दर रहते समय भिक्षाचर्या आदि अन्दर एव बाहर रहते समय बाहर ही करना चाहिए । निर्ग्रन्थियों

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