Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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श्रमण-धर्म : १८५ होने वाली अपनी त्रुटियों के लिए पश्चात्ताप कर उन्हें मिथ्या अर्थात् निष्फल बनाना मिथ्याकार कहलाता है। गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि की आज्ञा स्वीकार कर उनके कथन का 'तहत्ति' ( आपका कथन यथार्थ है ) कहकर आदर करना तथाकार अथवा तथ्येतिकार कहलाता है । उठने, बैठने आदि मे अपने से बडो के प्रति भक्ति एवं विनय का व्यवहार करना अभ्युत्थान है। भगवती ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) सूत्र ( शतक २५) में अभ्युत्थान के स्थान पर निमन्त्रणा शब्द है। निमन्त्रणा का अर्थ है आहारादि लाने के लिए जाते समय साथी श्रमणों को भी साथ आने के लिए निमत्रित करना अथवा उनसे यह पूछना कि क्या आपके लिए भी कुछ लेता आऊँ ? ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए योग्य गुरु का आश्रय ग्रहण करना उपसंपदा है। इसके लिए श्रमण अपने गच्छ का त्याग कर अन्य गच्छ का आश्रय भी ले सकता है।
मुनि को दिवस को चार भागो मे विभक्त कर अपनी दिनचर्या सम्पन्न करनी चाहिए। उसे दिवस के प्रथम प्रहर मे मुख्यतः स्वाध्याय, द्वितीय मे ध्यान, तृतीय मे भिक्षाचर्या तथा चतुर्थ मे फिर स्वाध्याय करना चाहिए । इसी प्रकार रात्रि के चार भागों मे से प्रथम मे स्वाध्याय, द्वितीय मे ध्यान, तृतीय मे निद्रा एवं चतुर्थ मे पुनः स्वाध्याय करना चाहिए। इस प्रकार दिन-रात के आठ पहर मे से चार पहर स्वाध्याय के लिए, दो पहर ध्यान के लिए, एक पहर भोजन के लिए तथा एक पहर सोने के लिए है। इससे प्रतीत होता है कि श्रमण की दिनचर्या में अध्ययन का सर्वाधिक महत्त्व है । इसके बाद ध्यान को महत्त्व दिया गया है।

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