Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 208
________________ १९४ : जैन आचार आदि किसी एक अंगोपाग ) पर दृष्टि स्थित कर निर्निमेष नेत्रों, निश्चल अंगों, सकुचित पैरो एवं प्रलम्बित वाहुयो से ध्यानस्थ होता है तथा पूर्ववत् समस्त उपसर्गों को सहन करता है । इन प्रतिमाओ के नामो से स्पष्ट है कि प्रथम प्रतिमा एक मास की, द्वितीय दो मास की यावत् सातवी प्रतिमा सात मास की होती है । आठवी, नवी व दसवी प्रतिमाओं का समय सातसात दिनरात का है । ग्यारहवी प्रतिमा एक दिनरात की तथा बारहवी प्रतिमा एक रात की होती है । प्रथम सात प्रतिमाओं मे टीकाकार पूर्व - पूर्व की प्रतिमाओ का समय भी मिलाते जाते हैं । दूसरे शब्दों मे टीकाकारो के मत से प्रथम सात प्रतिमाएँ एक-एक मास की ही होती हैं । ऐसा मानने पर आठ मास के भीतर ही द्वादश प्रतिमाएं समाप्त हो जाती हैं । यदि मूल सूत्र के अनुसार प्रथम प्रतिमा एक मास की यावत् सप्तम प्रतिमा अलग से सात मास की मानी जाय तो प्रथम सात प्रतिमाओं के लिए दो वर्ष चार महीने तथा अतिम पांच प्रतिमाओ के लिए बाईस दिन व एक रात का समय लगता है । इस प्रकार द्वादश प्रतिमाएँ दो वर्ष, चार मास, बाईस दिवस व एक रात्रि मे समाप्त हो पाती हैं । इस अवधि मे वर्षा ऋतु के दिनो मे विहार के सामान्य नियम का पालन नही किया जाता अर्थात् एक या दो दिन के अन्तर से ग्रामानुग्राम विहार न किया जाकर चार मास पर्यन्त एक ही स्थान पर रहा जाता है । व्यवहार सूत्र के दसवे उद्देश मे यवमध्य - प्रतिमा एवं वज्रमध्य- प्रतिमा का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार अन्यत्र भद्र

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