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८४ : जैन आचार
में ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावक-धर्म का प्ररूपण किया है। पडित आशाधर ने सागार-धर्मामृत मे पक्ष, निष्ठा एवं साधन को आधार बनाकर श्रावक-धर्म का विवेचन किया है। इस पद्धति के बीज आचार्य जिनसेन के आदिपुराण (पर्व ३९) मे पाये जाते हैं। इसमे सावध क्रिया अर्थात् हिंसा की शुद्धि के तीन प्रकार बताये गये हैं : पक्ष, चर्या और साधन । निग्रंथ देव, निग्रन्थ गुरु तथा निग्रंन्थ धर्म को ही मानना पक्ष है । ऐसा पक्ष रखने वाले गृहस्थ को पाक्षिक श्रावक कहते हैं। ऐसे श्रावक की
आत्मा मे मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ्यवृत्ति होती है। जीवहिंसा न करते हुए न्यायपूर्वक आजीविका का उपार्जन करना तथा श्रावक के बारह व्रतो एवं ग्यारह प्रतिमाओ का पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है। इस प्रकार की चर्या का आचरण करने वाले गृहस्थ को नैष्ठिक श्रावक कहते है। जीवन के अन्त मे आहारादि का सर्वथा त्याग करना साधन है। इस प्रकार के साधन को अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्मशोधन करने वाला साधक श्रावक कहलाता है। उपासक-धर्म का प्रतिपादन करने वाले उक्त तीन प्रकारो मे तत्त्वतः कोई भेद नही है। अहिंसादि बारह व्रत एवं सल्लेखना श्रावक-धर्म के सम्यक् प्रतिपालन के लिए सामान्यतया आवश्यक हैं। बारह व्रतधारी श्रावक विशेष आत्मसाधना के लिए उपयुक्त समय पर ग्यारह प्रतिमाओ को क्रमश. धारण करता है। पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन द्वादश व्रतधारी श्रावक की आचार-मर्यादा के ही प्रकारान्तर से किये गये तीन भेद हैं।