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श्रावकाचार
_व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक, अणुन्नती, देशविरत, सागार आदि नामो से सम्बोधित किया जाता है। गुणस्थान की दृष्टि से वह पंचम गुणस्थानवर्ती माना जाता है। चूंकि वह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों अर्थात् श्रमणो से निर्ग्रन्थ-प्रवचन का श्रवण करता है अत. उसे श्राद्ध अथवा श्रावक कहा जाता है। श्रमणवर्ग की उपासना करने के कारण वह श्रमणोपासक अथवा उपासक कहलाता है । अणुव्रतरूप एकदेशीय अर्थात् अपूर्ण संयम अथवा विरति धारण करने के कारण उसे अणुवती, देशविरत, देशसंयमी अथवा देशसयती कहा जाता है। चूंकि वह आगार अर्थात् घर मे रहता है-उसने घरबार का त्याग नही किया है अतएव उसे सागार, आगारी, गृहस्थ, गृही आदि नामो से पुकारा जाता है। श्रावकाचार के ग्रथो मे उपासक-धर्म का प्रतिपादन तीन प्रकार से किया गया है. १ वारह व्रतो के आधार पर, २. ग्यारह प्रतिमाओ के आधार पर, ३. पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर । उपासकदशाग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डक-श्रावकाचार आदि मे सल्लेखनासहित वारह व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र-प्राभृत मे, स्वामी कातिकेय ने अनुप्रेक्षा मे एव आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दि-श्रावकाचार