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श्रावकाचार : ९७
स्वार्थवश राज्य के किसी भी कानून का भग करना, समाज के किसी भी हितकर नियम की अवहेलना करना आदि । लेन-देन न्यूनाधिकता का प्रयोग करना कूटतोल- कूटमान कहलाता है । इससे व्यक्ति की अप्रामाणिकता प्रकट होती है । प्रामाणिक व्यक्ति किसी के साथ विश्वासघात नही करता । वह किसी के अज्ञान अथवा विश्वास का अनुचित लाभ नही उठाता । लेन-देन मे धूर्तता का प्रयोग कर कम-ज्यादा तोलना, नापना, गिनना सामनेवाले के साथ विश्वासघात करना है । वस्तुओ मे मिलावट करना तत्प्रतिरूपक व्यवहार है । बहुमूल्य वस्तु मे अल्पमूल्य वस्तु मिलाना, शुद्ध वस्तु मे अशुद्ध वस्तु मिलाना, सुपथ्य वस्तु मे कुपथ्य वस्तु मिलाना और इस प्रकार अनुचित लाभ उठाना श्रावक के लिए वर्जित है ।
४. स्वदार सन्तोष - अपनी भार्या के सिवाय शेष समस्त स्त्रियो के साथ मैथुनसेवन का मन, वचन व कायापूर्वक त्याग करना स्वदार-संतोप व्रत कहलाता है । जिस प्रकार श्रावक के लिए स्वदार - संतोष का विधान है उसी प्रकार श्राविका के लिए स्वपति - सतोष का नियम समझना चाहिए | अपने भर्ता के अतिरिक्त अन्य समस्त पुरुषो के साथ मन, वचन और काया - पूर्वक मैथुनसेवन का त्याग करना स्वपति - सतोष कहलाता है | श्रावक के लिए स्वदार- सतोष एव श्राविका के लिए स्वपति - सतोष अनिवार्य है | श्रमण श्रमणी के लिए मैथुन का सर्वथा त्याग विहित है जबकि श्रावक-श्राविका के लिए मैथुन की मर्यादा निश्चित की गई है । स्थूल प्राणातिपात विरमण
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