________________
"
जैन ७८ • आचार
गया है । चौथा अध्याय सम्यक्चारित्र की आराधना पर प्रकाश डालता है । पाचवे अध्याय मे पिण्डविशुद्धि का विचार किया गया है । इसमे आहारशुद्धि से सम्बन्धित निम्नोक्त दोपो का प्रतिपादन है : सोलह उद्गम-दोप, सोलह उत्पादन दोप, दस शकितादि दोष, अगार, धूम, सयोजन और प्रमाण - ये ४६ पिण्डदोप; पूय, अस्र, पल, अस्थि, अजिन, नख, कच, मृतविकलत्रिक, कद, बीज, मूल, फल, कण और कुण्ड - ये १४ अन्नगत मल, काकादि ३२ अन्तराय । छठे अध्याय में महोद्योग - मार्ग का वर्णन है । इसमे दशलक्षण धर्म, द्वादशविध अनुप्रेक्षा व द्वाविंशति परीषहजय का प्रतिपादन किया गया है। सातवे अध्याय मे सम्यक् तप की आराधना का उपदेश है । ग्राठवा अध्याय षडावश्यक से सम्बन्धित है । नवे अध्याय मे नित्य नैमित्तिक क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे लगभग एक हजार श्लोक है । सागार-धर्मामृत व अनगार-धर्मामृत दोनो पर स्वोपज्ञ टीकाएँ हैं ।
-
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओ के आचार- विपयक ग्रन्थो के उपर्युक्त परिचय से स्पष्ट है कि इन दोनो परम्पराओं के आचारमूलक सिद्धान्तो व नियमो मे कितना साम्य है । मूलत. इनमे कोई भेद दृष्टिगोचर नही होता । यहाँ तक कि दिगम्बर परम्पराभिमत मूलाचार जो कि इस परम्परा का आचाराग है, श्रमण श्रमणियो के पारस्परिक व्यवहार का भी यथोचित विधान करता है । इससे स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा मे साध्वी सस्था भी उसी प्रकार मान्य एव आदरणीय रही है