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४२ : जैन आचार
शौच, संतोप, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान की विद्यमानता होती है। शारीरिक व मानसिक शुद्धि का नाम शौच है । जीवन के लिए अनिवार्य पदार्थों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं की अस्पृहा को सन्तोष कहते हैं। क्षुधा, पिपासा आदि परीषह तथा अन्य प्रकार के कष्ट सहन करना तप है। ग्रन्थादि के अध्ययन का अर्थ है स्वाध्याय । परमात्मतत्त्व का चिन्तन ईश्वरप्रणिधान कहलाता है। इस दृष्टि मे बोध कडे की अग्नि के समान होता है जो कुछ समय तक टिकता है। जिस प्रकार मित्रादृष्टि मे अखेद एवं अद्वेष गुण उत्पन्न होता है उसी प्रकार तारादृष्टि मे 'जिज्ञासा' गुण पैदा होता है। इसके कारण व्यक्ति के मन में तत्त्वज्ञान की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इस दृष्टि मे शुभ कार्य करने की प्रवृत्ति विशेष बलवती एवं वेगवती होती है। इसकी सिद्धि के लिए व्यक्ति अनेक प्रकार के नियम अंगीकार करता है। उसे योगकथा से बहुत प्रेम होता है। अन्य प्रकार की कथानो मे आनन्द नही आता । योगियों-साधको के प्रति उसके हृदय मे मान बढ़ जाता है।
वलादृष्टि व आसन :
बलादृष्टि मे साध्य का दर्शन विशेष दृढ एवं स्पष्ट होता है। आत्मा 'ग्रन्थिभेद' के समीप पहुँच जाती है। उसे एक ऐसे वल का अनुभव होता है जो पहले कभी न हुआ हो। इस दृष्टि मे स्थित व्यक्ति की ऐसी मनोवृत्ति हो जाती है कि उसकी पौद्गलिक पदार्थविषयक तृष्णा शान्त हो जाती है। परिणामतः