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६२ : जैन आचार
को ध्यान में रखते हुए इन्हें छेदसूत्र नाम दिया गया है। छेदसूत्रों में श्रमणाचार से सम्बन्धित प्रत्येक विषय का प्रतिपादन किया गया है। यह प्रतिपादन उत्सर्ग, अपवाद, दोष एव प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इस प्रकार का प्रतिपादन अगादि सूत्रो मे नही मिलता। इस दृष्टि से छेदसूत्रों का जैन आचारसाहित्य मे विशेष महत्वपूर्ण स्थान है । दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प एव व्यवहार आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) की कृतियाँ मानी जाती है।
दशाश्रुतस्कन्ध को आचारदशा के नाम से भी जाना जाता है। इसमे दस अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन मे द्रुत गमन, अप्रमार्जित गमन, दुष्प्रमार्जित गमन, अतिरिक्त शय्यासन आदि बीस असमाधिस्थानो का उल्लेख है। द्वितीय अध्ययन मे हस्तकर्म, मैथुनप्रतिसेवन, रात्रिभोजन, आधाकर्मग्रहण, राजपिण्डग्रहण आदि इक्कीस प्रकार के शबल-दोषो का वर्णन है। तृतीय अध्ययन मे तैतीस प्रकार की आशातनाओ पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्ययन मे आठ प्रकार की गणिसम्पदाओ-आचार-सम्पदा, श्रुत-सम्पदा, शरीरसम्पदा, वचन-सम्पदा, वाचना-सम्पदा आदि का वर्णन है। पंचम अध्ययन दस प्रकार के चित्तसमाधि-स्थानो से सम्बन्धित है। षष्ठ अध्ययन मे एकादश उपासक-प्रतिमाओ तथा सप्तम अध्ययन मे द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओ का वर्णन है। अष्टम अध्ययन का नाम पर्युषणाकल्प है। वर्षाऋतु मे श्रमण का एक स्थान पर रहना पर्युषणा कहलाता है। पर्युषणाविपयक कल्प अर्थात् आचार का नाम है पर्युषणाकल्प । प्रस्तुत अध्ययन मे पर्युषणाकल्प के लिए विशेष उपयोगी महावीरचरितसम्बन्धी पाँच हस्तोत्तरो का निर्देश किया