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जैन आचार-ग्रन्थ : ७ १
अस्नान, क्षितिशयन, अदतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त । बृहत्प्रत्याख्यान - अधिकार मे सब पापो का त्यागकर मृत्यु के समय दर्शनादि आराधनाओं में स्थिर रहने तथा क्षुधादि परीपहो को जीतने का उपदेश है । सक्षेप प्रत्याख्यान - अधिकार मे व्याघ्रा - दिजन्य आकस्मिक मृत्यु की उपस्थिति मे सव पापो का त्याग कर समभावपूर्वक प्राण छोडने का उपदेश है । सामाचाराधिकार मे इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निपेधिका, आपूच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दन, सनिमन्त्रणा और उपसम्पत् - इन दस प्रकार के औधिक सामाचारो का वर्णन है । इसमे यह भी बताया गया है कि तरुण श्रमण को तरुण श्रमणी के साथ सभापण नही करना चाहिए; श्रमणो को श्रमणियो के साथ उपाश्रय मे नही ठहरना चाहिए, श्रमणियो को तीन, पाँच अथवा सात की संख्या मे ( पारस्परिक संरक्षण की भावना से ) भिक्षा के लिए जाना चाहिए; आर्याओ को आचार्य से पाँच हाथ दूर, उपाध्याय से छः हाथ दूर एवं साधु से सात हाथ दूर बैठ कर वदना करनी चाहिए | इस प्रकार सामाचाराधिकार मे साधु-साध्वियो के पारस्परिक व्यवहार का भी कुछ विचार किया गया है। पचाचाराधिकार मे दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपआचार व वीर्याचार का भेद-प्रभेदपूर्वक वर्णन किया गया है । पिण्डशुद्धिअधिकार मे निम्नोक्त आठ प्रकार के दोपो से रहित आहारशुद्धि का प्रतिपादन किया गया है. १. उद्गम, २ उत्पादन, ३. एषण, ४. सयोजन, ५ प्रमाण, ६ अगार, ७ धूम, ८ कारण । पडावश्यक - अधिकार मे सर्वप्रथम पचनमस्कार - निरुक्ति की