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-७४ : जैन आचार
कार मे आगम, आज्ञा, श्रुत, धारणा और जीत रूप पांच प्रकार के व्यवहार का वर्णन है । इसमें व्यवहार सूत्र की प्रधानता बताई गई है । भावना-अधिकार मे गजसुकुमार, अन्निकापुत्र, भद्रबाहु, धर्मघोष, चिलातपुत्र आदि अनेक मुनियों की कथाएँ हैं जिन्होने विविध परीषह सहन कर सिद्धि प्राप्त की ।
रत्नकरण्डक-श्रावकाचार :
आचार्य समतभद्रकृत रत्नकरण्डक श्रावकाचार का एक संस्कृत ग्रन्थ है | इसमे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र रूप त्रिरत्नधर्म की आराधना का उपदेश है । ग्रन्थ मे सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाया गया है एवं उसकी महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमे यह प्रतिपादित किया गया है कि सम्यग्दर्शनयुक्त चाडाल को भी देवसदृश समझना चाहिये | मोहरहित अर्थात् सम्यग्दृष्टिसम्पन्न गृहस्थ मोक्षाभिमुख होता है । जबकि मोहयुक्त अर्थात् मिथ्यादृष्टिसम्पन्न मुनि मोक्षविमुख होता है । अतएव मोहयुक्त मुनि से मोहरहित गृहस्थ श्रेष्ठ है । इसके बाद आचार्य ने सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बताते हुए तद्विषयगत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एव द्रव्यानुयोग का सामान्य परिचय दिया है । तदनन्तर सम्यक् चारित्र की पात्रता एवं आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए उसे हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन एव परिग्रहात्मक पाप से विरतिरूप बताया है । चारित्र के सकल और विकलरूप दो भेद करके यह उल्लेख किया है कि सकलचारित्र सर्वविरत मुनियो के होता है जबकि