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जैन आचार-ग्रन्थ : ५५
जलाशय की उपमा दी गई है। छठे उद्देश मे उन्मार्ग एवं रागद्वेष के परित्याग का उपदेश दिया गया है। पष्ठ अध्ययन का नाम धूत है। इसमे बाह्य व आन्तरिक पदार्थों के परित्याग तथा आत्मतत्त्व की परिशुद्धि का उपदेश दिया गया है अत. इसका धूत (फटक कर धोया हुआ-शुद्ध किया हुआ) नाम सार्थक है। इसके प्रथम उद्देश मे स्वजन, द्वितीय मे कर्म, तृतीय मे उपकरण और शरीर, चतुर्थ मे गौरव तथा पंचम मे उपसर्ग और सन्मान के परित्याग का उपदेश है। महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन विच्छिन्न है-लुप्त है। इसकी नियुक्ति भी उपलब्ध नहीं है। नियुक्तिकार ने प्रारम्भ मे इसके विषय का मोहजन्य परीषह व उपसर्ग के रूप में निर्देश किया है : मोहसमुत्था परीसहवसग्गा। इससे प्रतीत होता है कि इस अध्ययन मे नाना प्रकार के मोहजन्य परीषहों और उपसर्गों को सहन करने के विषय मे प्रकाश डाला गया होगा। विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन मे आठ उद्देश है। प्रथम उद्देश मे असमनोज्ञ अर्थात् असमान प्राचार वाले के परित्याग का उपदेश है। द्वितीय उद्देश मे अकल्प्य अर्थात् अग्राह्य वस्तु के ग्रहण का प्रतिषेध किया गया है। अंगचेष्टा से सम्बन्धित कथन या शंका का निवारण तृतीय उद्देश का विपय है। आगे के उद्देशों में सामान्यतः भिक्षु के वखाचार का वर्णन है किन्तु विशेषत चतुर्थ मे वैखानस एवं गार्द्धपृष्ठ मरण, पचम मे रोग एवं भक्तपरिज्ञा, षष्ठ मे एकत्वभावना एवं इंगिनीमरण, सप्तम मे प्रतिमा एवं पादपोपगमन मरण तथा अहम मे वय प्राप्त श्रमणो के भक्तपरिज्ञा, इगिनीमरण एवं पादपोपगमन मरण की चर्चा है। नवम अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है। इसमे