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जैन दृष्टि से चारित्र - विकास : ४३
उसमे ऐसी स्वभावसौम्यता उत्पन्न हो जाती है कि स्थिरता के अभ्यास के रूप मे उसे आसन नामक तृतीय योगाग की प्राप्ति होती है | प्रथम दो दृष्टियो मे जैसे अद्वेप व जिज्ञासा गुण प्राप्त होते हैं वैसे ही इस दृष्टि मे शुश्रूपा अर्थात् श्रवणेच्छा गुण की प्राप्ति होती है । इससे व्यक्ति को तत्त्वश्रवण की प्रबल इच्छा होती है । उसे तत्त्वश्रवण मे अति श्रानन्द का अनुभव होता है । इस दृष्टि मे प्राप्त बोध काष्ठ की अग्नि के सदृश होता है । यह तारादृष्टि मे प्राप्त बोध की अपेक्षा अधिक स्थिर होता है । इस दृष्टि की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमे सत्प्रवृत्ति करते हुए प्राय विघ्न उपस्थित नही होते प्रत. आरम्भ किये हुए शुभ कार्य ठीक तरह पूरे हो जाते हैं । कदाचित् विघ्न आ जाय तो भी उसके निवारण की उपायकुशलता प्राप्त होने के कारण वह बाधक सिद्ध नही हो पाता ।
दीप्रादृष्टि व प्राणायाम :
दीप्रा नामक चतुर्थ दृष्टि मे योग के चतुर्थ अग प्राणायामश्वासनियन्त्रण की प्राप्ति होती है । जिस प्रकार प्राणायाम की रेचक, पूरक व कुम्भकरूप तीन अवस्थाएं हैं उसी प्रकार इस दृष्टि की भी तीन अवस्थाएं हैं । यहाँ बाह्यभाव- नियन्त्रणरूप रेचक, आन्तरिकभाव - नियन्त्रणरूप पूरक एव स्थिरतारूप कुभक होता है | यह प्राध्यात्मिक प्राणायाम है । इस दृष्टि मे प्राप्त होनेवाला बोध दीपप्रभा - दीपक की ज्योति के समान होता है । यहाँ श्रवण गुण की प्राप्ति होती है । बलादृष्टि मे प्राप्त शुश्रूषा दीप्रा