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जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ३५
होकर आत्मसाधना मे लग्न होता है। इसीलिए इसे अप्रमत्तसयत गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था मे रहे हुए साधक को प्रमादजन्य वासनाएँ एकदम नहीं छोड देती। वे बीच-बीच मे उसे परेशान करती रहती हैं। परिणामतः वह कभी प्रमादावस्था में विद्यमान रहता है तो कभी अप्रमादावस्था मे। इस प्रकार साधक की नैया छठे व सातवे गुणस्थान के बीच मे डोलती रहती है।
अपूर्वकरण :
यदि साधक का चारित्र-बल विशेष बलवान् होता है और वह प्रमादाप्रमाद के इस संघर्ष मे विजयी वन कर विशेष स्थायी अप्रमत्त-अवस्था प्राप्त कर लेता है तो उसे तदनुगामी एक ऐसी शक्ति की सम्प्राप्ति होती है जिससे रहे-सहे मोह-बल को भी नष्ट किया जा सके । इस गुणस्थान मे साधक को अपूर्व आत्मपरिमाणरूप शुद्धि अर्थात् पहले कभी प्राप्त न हुई विशिष्ट आत्मगुणशुद्धि की प्राप्ति होती है । चूँकि इस अवस्था मे रहा हुआ साधक अपूर्व आध्यात्मिक करण अर्थात् पूर्व मे अप्राप्त आत्मगुणरूप साधन प्राप्त करता है अथवा उसके करण अर्थात् चारित्ररूप क्रिया की अपूर्वता होती है अत इसका नाम अपूर्वकरण-गुणस्थान है। इसका दूसरा नाम निवृत्ति-गुणस्थान भी है क्योकि इसमे भावो की अर्थात् अध्यवसायो की विषयाभिमुखता--पुन. विषयो की ओर लौटने की क्रिया विद्यमान रहती है।