Book Title: Jai Jiya Kappo Author(s): Labhsagar Publisher: Agamoddharak Granthmala View full book textPage 9
________________ भूतकालीन समृद्ध वारसानी याद अपावता ज्ञानभंडारोनी शोभारूप बनी जशे. कारण आपणे तेने वांची शकवा अने समजी शकवा असमर्थ बनी गया होइशु. __ आवी विकट अने गंभीर स्थितिनो जो बराबर विचार करवामां आवे तो मारा प्रिय सुज्ञवाचकमित्रो अने अन्य श्रमणो पण मारा आ अभिप्राय साथे संमत थशे के आवा ग्रंथोने तद्दन अप्रकाशनना अधिकारमा न राखता अने बहु प्रचारना प्रकाशमां न राखता परिणत गीतार्थ पुरता प्रचार सहितनुं गीतार्थो द्वारा प्रकाशन ए आजना आपद्धर्मरूपे जरुरी अने उपयोगी छे. - उपसंहार-आजे जरूरत छे आपणी सजागतानी. भापणे सजाग होइए अने मुनिओ स्वयं आजे पोताना अनेक कार्यक्रमोमा पुस्तकलेखनने पण स्थान आपे अने स्वयं पोते लखे तो अशुद्ध प्रतिओ लेखकोना हस्ते लखाय छे ते दूर थाय अने सुविशुद्ध प्रति ओ लखाय. प्राचीनकालमां तो मुनिओ स्वयं लखता क्वचित् लहीआओ लखता ते पण पाछलथी पोते वांचीने या अन्य मुनिओ पासे वंचावीने अशुद्धिओ दर करवा प्रयास करता. जो आम थाय तो आपणा प्राचीन या अर्वाचीन ग्रंथोनी आयुमर्शदा वधु थाय ( अने आवा प्रकाशननी जरुरीआत पण घटे ) कारण प्रकाशित पुस्तको वधु टकता नथी नेटला हस्तलेखित ग्रंथो टके छे ( छेदसूत्रमा कोइ सूत्र एवा पण छे जे अप्रकाशित रहे तेज योग्य छे ) वो आ लेखनपद्धति पुनर्जीवन करवाथी ए ग्रंथो अप्रकाशित रहीने वधु सुरक्षित बनशे. . प्रिय विद्वानो आमा रहेली क्षतिओने उदारतापूर्वक क्षमो अी उपकृत करशे. एज अभिलाषा. आचार्य श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्य मुनि पुण्योदसागरPage Navigation
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