Book Title: Indrabhuti Gautam Ek Anushilan
Author(s): Ganeshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 63
________________ ४५ इन्द्रभूति गौतम समन्वय भावना और बहुश्रुतता का परिचय गौतम को मिला वह अभूतपूर्व था और भगवान महावीर की वीतरागता का स्पष्ट प्रमाण था । गौतम का मन और हृदय पूर्वाग्रहों से बंधा हुआ नहीं था, आम्नाय एवं शिष्यपरंपरा का व्यामोह तिलभर भी उनके मन में नहीं था । वे सत्य के जिज्ञासु थे, सत्य के शोधक थे, और जब भगवान महावीर के वचनों में उन्हें सत्य की प्रतीति हुई, उनकी वाणी में सत्य का साक्षात् दर्शन हुआ तो कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने समस्त पूर्व व्यामोहों को, संप्रदाय एवं संप्रदायगत के चिन्हों का त्याग कर दिया। भगवान महावीर के चरणों में हाथ जोड़कर विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगे “भन्ते ! मैंने आपके तर्कयुक्त वचनों का श्रवण किया है, मेरे मन के संशयों का उच्छेद हो गया है, मैं आपकी वीतरागता पर श्रद्धा करता हूँ, आपके ज्ञान को लोक कल्याणकारी मानता हूँ । प्रभो ! मुझे भी अपना शिष्य बनाइये, अपनी आचार विधि की दीक्षा दीजिए और मुक्ति का सच्चा मार्ग दिखलाइए । " इन्द्रभूति गौतम ने जब भगवान महावीर से शिष्य दीक्षा देने को प्रार्थना की तो संभवतः उनके पांच सौ शिष्यों को भी आश्चर्य हुआ होगा । भगवान के वचनों पर उन्हें भी श्रद्धा एवं विश्वास हुआ और वे भी गौतम के साथ ही भगवान महावीर के शिष्य बन गये । गौतम जब महावीर के शिष्य बने तो यह संवाद बिजली की भाँति चारों ओर फैल गया । और तब पावापुरी में एकत्रित विशाल ब्राह्मण समुदाय में अवश्य एक तूफान आया होगा, सब दिग्मूढ़ से सोचते रह गये होंगे, 'अरे ! यह क्या ? इन्द्रभूति जैसा उद्भट विद्वान भी वर्धमान के इन्द्र जाल में फँस गया ? संभवत: उपस्थित सभी विद्वानों के मन में एक खलबली मची होगी और महावीर के प्रति उत्कट जिज्ञासा भी उठी होगी । इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि इन्द्रभूति के पश्चात् यज्ञ मंडप में उपस्थित अग्निभूति, वायुभूति आदि अन्य दस महापंडित एक-एक करके अपने शिष्यों के साथ भगवान महावीर के समवसरण में आये, वाद विवाद किया, और अन्त में तर्कशुद्ध समाधान पाकर हृदय की सम्पूर्ण श्रद्धा को निछावर करके भगवान Jain Education International तीर्थ प्रवर्तन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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