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इन्द्रभूति गौतम
गौतम ने आगे कहा-"आयुष्मन् ! मेरे विचार से ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति को पूज्य बुद्धि से नमस्कार करना चाहिए, उसका सत्कार एवं सम्मान करना चाहिए। उन्हें कल्याणकारी मंगलमय देवतास्वरूप मानकर उनकी पर्युपासना करनी चाहिए।"
गौतम के 'हियं मियं विगयभयं' हित-मित एवं निर्भीक वचनों को सुनकर उदक पेढाल का हृदय गद्गद हो गया। उसने क्षमा मांगते हुए विनयपूर्वक अपनी भल स्वीकार की और कहा-"भगवन् ! मुझे पहले कभी इस प्रकार की शिक्षा सुनने का अवसर ही नहीं मिला, अत: मैं विनय के आचार से भी अनभिज्ञ रहा। आपके शब्दों से अब मुझे अपने कर्तव्य का ज्ञान हुआ है, साथ ही आपके हितकारी वचनों पर विश्वास भी हुआ है, श्रद्धा एवं प्रतीति हुई है, अब मैं अपने कर्तव्य एवं धर्म को पहचान पाया हूं और मैं चाहता हूँ कि आपका शिष्यत्व स्वीकार करूँ।"७६९
उदकपेढालपुत्र की भावना को समझकर गौतम ने उसे चतुर्याम धर्म के स्थान पर पंचयाम धर्म की शिक्षा दी और भगवान महावीर के श्रमणसंघ में सम्मिलित किया।
उदक पेढाल पुत्र पार्श्वनाथ की प्राचीन परम्परा से संबंधित था। गौतम ने उसके प्रश्नों का संतोषजनक समाधान देकर ही इति नहीं समझा। किन्तु जब उसे व्यवहार के क्षेत्र में अनभिज्ञ एवं असंस्कृत देखा तो कर्तव्य का उचित बोध देने में भी नहीं चूके। भले ही उनकी 'हित शिक्षा' एक बार उसे कड़वी लगी हो, किन्तु वह मिसरी सी मधुर होने के साथ वजनदार भी थी, माधुर्य के साथ चोट करने की क्षमता उसमें थी, उसी मधुर चोट ने उदक पेढाल पुत्र को अपने कर्तव्य, विनयव्यवहार एवं आत्मधर्म के प्रति जागृत कर दिया और फलतः वह सही मार्ग पर आ सका। इस घटना में गौतम के अन्तर का सच्चा गुरुत्व उजागर हुआ है जो शिष्य के कल्याण के लिए सदा निर्भय होकर हित बुद्धि से मार्गदर्शन करता रहता है।
७६. एतेसिणं भंते ! पदाणं पुव्विं अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं
अदिट्ठाणं असुयाणं "एयमट्ठ सद्दहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेय तुब्भे वदह–सूत्र कृतांग २।७।३८
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