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इन्द्रभूति गौतम
मेरे समान सिद्ध बुद्ध मुक्त बनोगे।" इस वरदान को पाकर कौन भक्त प्रसन्नता से नहीं झूम उठेगा।
इस घटना से गौतम का भगवान महावीर के प्रति अनन्य स्नेह एवं अद्वितीय भक्ति प्रकट होती है । और उसमें कितनी मधुरता है, कितनी एकनिष्ठता है यह तो आगमों के अनुशीलन से पद-पद पर प्रकट होती दिखाई देती है । एक भगवती सूत्र में ही कई हजार बार-'गोयमा' इस सम्बोधन की आवृत्ति हुई है। अन्य आगमों भी संकड़ों बार स्थान-स्थान पर भगवान अपने प्रिय भक्त-गौतम को..........."गोयमा ।' सम्बोधन से जब पुकारते हैं तो लगता है सम्पूर्ण भारतीय वाङमय में भी शायद् हो ऐसा कोई जिज्ञासु एवं अनन्य भक्त हुआ हो जिसे भगवान अपने श्री मुख से बार-बार पुकार रहे हों। भगवान के श्रीमुख से यह मधुर संबोधन सुनकर भक्त गौतम भी श्रद्धा गद्गद् होकर धन्य-धन्य हो उठते होंगे। गौतम की एकनिष्ठा का उत्तर आगमों में उन्हीं को वाणी से दिया गया है। जब भगवान से किसी प्रश्न का समाधान गौतम को मिला तो वे एक अपूर्व प्रसन्नता एवं श्रद्धा से भगवान के प्रति कृत्तज्ञता प्रकट करते हुए कहते हैं—'सेवं भंते ! सेवं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितह मेयंभंते !"-भगवन् ! आपने जैसा कहा वैसा ही है, आपका कथन सत्य है, पूर्ण सत्य है, मैं उस पर विश्वास करता हूँ, श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ।"
गुरु के समाधान पर शिष्य का यह श्रद्धा एवं निष्ठा पूर्ण उत्तर वास्तव में एक उदात्त परम्परा का प्रेरक है। गौतम जैसा व्यक्ति जो जीवन के प्रारम्भ में प्रखर तार्किक रहा हो, स्वयं भगवान महावीर से वाद विवाद एवं दर्शन को गम्भीर चर्चाओं से समाधान खोज रहा हो, वही भगवान के प्रति इतना श्रद्धा एवं निष्ठा पूर्ण होकर समर्पित हो जाता है, यह वास्तव में तर्क पर श्रद्धा की विजय का एक अकाट्य प्रमाण है, साथ ही भक्ति की एक निष्ठा का अपूर्व उदाहरण भी । गौतम के जीवन की इन्हीं विरल विशेषताओं के कारण उन्हें अनन्य प्रभु भक्त कहा गया है।
महान जिज्ञासु
गणधर गौतम के व्यक्तित्व में 'जिज्ञासा' तत्त्व प्रारम्भ से ही प्रबल रहा है यह पिछले घटना चक्र से स्पष्ट हो जाता है । जिज्ञासा ने ही उन्हें यज्ञ मण्डप से भगवान महावीर की ओर मोड़ा, जिज्ञासा ने ही उन्हें याज्ञिक ब्राह्मण से श्रमणत्व का परिवेष दिया और इस जीवित जिज्ञासा ने ही भगवान महावीर के उपदेशों एवं प्रवचनों को
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