Book Title: Indrabhuti Gautam Ek Anushilan
Author(s): Ganeshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 118
________________ व्यक्तित्व दर्शन रात्रि में भगवान का परिनिर्वाण हो गया । गौतम स्वामी को जब इसकी खबर लगी तो वे एकदम मोह-विह्वल हो गये । उनके हृदय पर वज्राघात-सा लगा। वे मोहदशा में- "भंते ! भंते !" पुकार उठे । भगवान को उलाहना देते हुए कहने लगे "प्रभु ! आपने यह क्या धोखा किया ? जीवन भर छाया की भाँति मैं आपकी सेवा में रहा, और आज अपने अंतिम समय में आपने मुझे दूर कर दिया ? क्या में बालक की तरह आपका अंचल पकड़ कर मोक्ष जाने से रोकता था ? क्या मेरे स्नेह में कोई कृत्रिमता थी ? यदि मैं भी आपके साथ चलता तो सिद्ध शिला पर कौन सी संकीर्णता हो जाती ? क्या शिष्य भी गुरू के लिए भार स्वरूप बन जाता ? प्रभो ! अब मैं किसके चरणों में प्रणाम करूँगा? कौन मेरे मन के प्रश्नों का समाधान करेगा ? किसे मैं भन्ते ! कहूँगा, और कौन मुझे--'गोयमा' कह कर पुकारेगा ?"१११ कुछ क्षण इस प्रकार की भाव विह्वलता में बहने के पश्चात् इन्द्रभूति ने अपने आपको संभाला। उस तत्वज्ञानी महान् साधक ने अपने मन के घोड़े को घेरा। और विचार करने लगे—“अरे ! यह मेरा मोह कैसा ? वीतराग के साथ स्नेह कैसा ? भगवान तो वीतराग है, मैं व्यर्थ ही उनके राग में फंसा हुआ हूँ। वे तो राग मुक्त होकर मोक्ष पधार गये ! अब मुझे भी राग छोड़ना चाहिए ! मुझे अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए, वही एक मेरा परम साथी है, बाकी सब बंधन हैं, पर हैं। इस प्रकार आत्म-चिंतन की उच्चतम दशा पर आरोहण करते हुए इन्द्रभूति ने अपने राग को क्षीण किया और उसी रात्रि के उत्तरार्ध में केवल ज्ञान प्राप्त किया । ११२ १११. भगवान महावीर के निर्वाण पर जिस प्रकार की मोहदशा गौतम को प्राप्त हुई, लगभग उसी प्रकार की मोहदशा एवं रुदन आदि की स्थिति तथागत के निर्वाण पर आनन्द की हुई। आनन्द ने जब तथागत का निर्वाण निकट आया सुना तो विहार में जाकर खूटी पकड़ कर रोने लगे- "हाय ! मेरे शास्ता का परिनिर्वाण हो रहा है !" जब बुद्ध को भिक्षुओं से ज्ञात हुआ कि आनन्द रुदन कर रहा है तो उन्होंने बुला कर कहा--"आनन्द ! शोक मत करो ! रुदन मत करो ! सभी प्रियों का वियोग अवश्यंभावी है। आनन्द ! तूने चिरकाल तक तथागत की सेवा की है, तू कृतपुण्य है । निर्वाण साधन में लग ! शीघ्र अनाश्रव हो !" -दीघनिकाय (आगम और त्रिपिटकः एक अनुशीलन, पृ० ३८७) ११२. कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178