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इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट)
मोह कर्म. ने लीजो. थे जीत जी, : केवल आड़ी आई छै भींत जी । थे तो शिष्य बड़ा सुविनीत जी,
थे तो राख जो रूड़ी रीत जी । थे तो पालजो पूरी प्रीत जी,
राखी मोक्ष जावण रो चित्त जी ।
श्री गौतम स्वामी में गुण घणा
अब
के अणी भव आंतरे, आपां दोनू बराबर होय । अजर अमर सुख सासता,
जठे जन्म मरण नहीं होय जी । भूख तृषो न लागे कोय जी,
गुरु मोटा मिलिया मोय जी । म्हारे कमी रही नहीं कोय जी,
वीर ने सामा रह्या छँ जोय जी । दीठा हर्षित हिवड़ो होय जी, मोहनी कर्म ने दीधो
खोय जो ।
श्री गौतम स्वामी में गुणघणा:"
जंग
वीर वचन प्रभु सांभली जी, कीधो कर्मा सु करणी कोधी "निर्मली, शिष्य वीर तणां सुविनीत जी । हुआ ब्राह्मण केरा पूत जी;
छोड़ी नातीला सु प्रीत जी । जारे वीर वचन आया चित्त जी,
तज दीनी खोटी रीत जी । जांरे आई - सांची प्रीत जी, जोड़ी जुगत मुक्ति सु प्रीतः जी ।
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