Book Title: Indrabhuti Gautam Ek Anushilan
Author(s): Ganeshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 124
________________ परिसंवाद के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? मैं कौन था, मेरा क्या स्वरूप है, यहाँ से आगे कहाँ जाऊँगा - ये विकट प्रश्न साधक को आत्मशोध की ओर उन्मुख करते हैं और जब तक वह इनका समाधान नहीं पा लेता, तब तक उसे चैन नहीं पड़ता । तथागत बुद्ध तो स्पष्ट प्रतिज्ञा करते हैं कि “जब तक मैं जन्म मरण के किनारे का पता नहीं पा लूँगा तब तक कपिलवस्तु में प्रवेश नहीं करूँगा | ९ इस प्रकार आश्चर्य; जिज्ञासा, संशय, कुतूहल ये सब मनुष्य को दर्शन की ओर उन्मुख करते रहे हैं । ठेठ वैदिक काल से लेकर पश्चिमी दर्शन के उद्भव तक यही 'इंटेलेक्चुअल क्युरियासिटी' (Intellectual curiosity ) 'बौद्धिक कौतुहल' मनुष्य को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर आगे से आगे बढ़ाता आया है । गौतम की प्रश्न शैली गणधर गौतम के मन में 'बौद्धिक कुतूहल' बहुत उत्कट रूप में प्रदर्शित होता है, वह सिर्फ आत्मा एवं परमात्मा के सम्बन्ध में ही नहीं, किन्तु दृश्य जगत् के प्रत्येक पदार्थ के सम्बन्ध में सचेतन है, कोई भी घटना, विषय या प्रसंग जब उनके सामने आता है तो वे उस विषय में जानने की इच्छा करते हैं, उसके विविध पक्षों पर 'संशयात्मक चिंतन, अवलोकन करते हैं, उसको विविधता एवं विचित्रता के संबंध में मन में कुतूहल होता है और उस 'श्रद्धा' संशय एवं कुतूहल से प्रेरित होकर अपने धर्मोपदेष्टा प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर विनय पूर्वक प्रश्न करते हैं । १०६ गौतम के प्रश्नोत्थान की शैली भी बड़ी सुन्दर एवं विनयपूर्ण है । उनके मन में जब कोई संशय या जिज्ञासा उपस्थित होती है तो वे चलकर जहाँ भगवान ७. ८. आचारांग १।१।१।१ जनन-मरणयोरहृष्टपारः न पुनरहं कपिलाह्वयं प्रवेष्टा । - बुद्धचरित (अश्वघोष ) ऋगवेद कालीन ऋषि रात्रि में तारों को देखकर कहता है— ये तारे रात्रि में दीख पड़ते हैं, वे दिन में कहाँ चले जाते हैं, यह मेरी समझ के परे है (ऋगवेद मं १ सू० २२ ) इस जगत् का आरम्भ किसने किया ? वह कौन था ? कैसा था ? आदि प्रश्न भी उसे विकल करते प्रतीत होते हैं (यजुर्वेद अ० २३) देखे दर्शन का प्रयोजनः पृष्ठ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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