Book Title: Indrabhuti Gautam Ek Anushilan
Author(s): Ganeshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 125
________________ ११० इन्द्रभूति गौतम महावीर विराजमान हैं वहाँ आते हैं, उन्हें विनयपूर्वक वन्दन करते हैं, प्रभु के ज्ञान की स्तुति करते हैं और फिर अपनी शंका प्रस्तुत करते हुए पूछते हैं- "कहमेयं भंतेकथमेत भदन्त----भगवन ! यह बात कैसे हैं ? कभी-कभी वे उत्तर की गहराई में जाकर पुनः प्रति प्रश्न भी करते हैं----केणटुणं भंते ! ऐसा किस लिए कहा जाता है ? वे हेतु तक जाकर तर्क शैली से उसका समाधान पाना चाहते हैं । __ गौतम के प्रश्न की यह शैली तर्क पूर्ण एवं वैज्ञानिक प्रतीत होती है। विज्ञान भी ‘कथम्'–हाउ (How) और 'कस्मात्' 'केन- ह्वाई (क्यों, किस कारण) (Why) इन्हीं दो तर्कसूत्रों को पकड़ कर वस्तुस्थिति की गहराई में उतरता है, और अन्वीक्षण-परीक्षण करके रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करता है । गौतम भी प्रायः इन्ही दो सूत्रों के आधार पर अपनी जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करते हैं। गौतम की जिज्ञासा में एक विशेषता और है । वे केवल प्रश्न के लिए प्रश्न नहीं करते हैं, किन्तु समाधान के लिए प्रश्न करते हैं। उनकी जिज्ञासा में सत्य की बुभुक्षा है, उनके संशय में समाधान की गूंज है, उनके कौतुहल में विश्व वैचित्र्य को समझने की तड़फ है। सत्योन्मुखता उनके प्रत्येक शब्द से जैसे टपकती है। यही कारण है कि भगवान महावीर अपना अमूल्य समय देकर भी गौतम के प्रश्नों का समाधान करते हैं । और गौतम भी अपनी जिज्ञासा का समाधान पाकर कृत-कृत्य होकर भगवान के चरणों में पुन: विनयपूर्वक कह उठते हैं—'सेवं भन्ते ! सेवं भन्ते ! तहमेयं भन्ते ! प्रभु ! जैसा आपने कहा, वह ठीक है, वह सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा एवं विश्वास करता हूँ।" प्रभु के उत्तर पर श्रद्धा की यह अनुगूज वास्तव में ही प्रश्नोत्तर की एक आदर्श पद्धति है । इससे न केवल प्रश्नकर्ता के समाधान की स्वीकृति होती है, किन्तु उत्तरदाता के प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा का भाव भी व्यक्त होता है, जो कि अत्यन्त आवश्यक है। प्रश्नों का वर्गीकरण गौतम के प्रश्न, चर्चा एवं संवादों का विवरण इतना विस्तृत है कि उसका वर्गीकरण करना बहुत ही कठिन है । भगवती, औपपातिक, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, १०. गौतम का कुतूहल कभी-कभी उसी रूप में व्यक्त होता है जैसा पूर्वोक्त ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के ऋषियों के मन में उठता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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