Book Title: Indrabhuti Gautam Ek Anushilan
Author(s): Ganeshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 88
________________ व्यक्तित्व दर्शन .७३ आनन्द ने कहा- "भगवन् ! मुझे भी घर में रहते हुए अवधिज्ञान हुआ है। मैं पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशा में लवण समुद्र के पांच सौ योजन तक के क्षेत्र को देखता एवं जानता हूँ। उत्तरदिशा में चुल्ल हिमवंत वर्षधर पर्वत तक देखता एवं जानता हूँ। ऊँची दिशा में सौधर्म देवलोक तक एवं नीची दिशा में रत्न प्रभा पृथ्वी के लौलुच्य नामक नरकवास तक देखता एवं जानता हूँ।" गौतम ने आनन्द के विशाल अवधि ज्ञान का वर्णन सुना तो आश्चर्य हुआ। वे बोले- "आनन्द ! गृहस्थ को अवधि ज्ञान तो हो सकता है, किन्तु इतनी विस्तृत सीमावाला अवधिज्ञान नहीं हो सकता। तुम्हारा कथन भ्रांति युक्त हो सकता है, अतः सत्य प्रतीत नहीं होता, तुम्हें अपनी इस भूल के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए।" विनय एवं विस्मय के साथ आनन्द ने निवेदन किया--"भगवन् ! क्या जिन शासन में ऐसी भी परिपाटी है कि सत्य तथ्य एवं सद्भूत कथन के लिये भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है ?" गौतम-'आनन्द ! नहीं !" आनन्द-- "भगवन् ! तो फिर मुझे सत्य कथन के लिये आप प्रायश्चित्त करने को कैसे कह रहे हैं ?" आनन्द के कथन से गौतम असमंजस में पड़ गये। उन्हें अपनी बात पर शंका हुई और वे तत्काल लौटकर भगवान महावीर के पास पहुँचे । भगवान को वंदना करके गौतम ने विनयपूर्वक आनन्द के वार्तालाप की चर्चा करते हुए पूछा- “भन्ते ! क्या गृहस्थ को इतनी बड़ी सीमावाला अवधिज्ञान हो सकता है ? इस प्रसंग को लेकर मेरे और आनन्द के बीच मतभेद हो गया है । वह कहता है मुझे ऐसा अवधिज्ञान प्राप्त हुआ है, और मैने कहा-इतना बड़ा अवधि ज्ञान गृहस्थ को नहीं हो सकता, तुम्हारा कथन असत्य है, प्रायश्चित करना चाहिए ! किन्तु भगवन् ! वह तो उलटा मुझे ही प्रायश्चित्त लेने की बात कहता है ! इसमें कौन सही है ?" भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करके कहा-“गौतम ! इस विषय में आनन्द का कथन सत्य है । तुम्हें अपनी बात का आग्रह नहीं होना चाहिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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