________________
( ३ )
-
-
-
-
-
-
के साधु यति सत्व तप दया क्षमा निःस्पृह प्रवृत्ति में प्रवर्तक हैं क्योंकि जैनी साधु वा गृहस्थियों के नियम अर्थात् देशी भाषा असूल कई एक संक्षेप मात्र आगे गुरु अङ्ग वा धर्म प्रवृत्ति अङ्ग में लिखेगा हैं परन्तु जैनी लोक ऐसे नहीं मानते हैं कि कभी तो ईश्वर निरंजन निराकार और कभीगर्भादि दुःख में फसता और कभी ईश्वर ब्रह्मज्ञानी और कभी अज्ञानी बावला होके रोता फिरता और कभी ईश्वर एक और कभी अनेक इत्यादि अपितु जैनी तो शुद्ध चैतन्य एकान्त अविनाशी पद को ईश्वर मानते हैं और संसार (जगत) को और पुण्य पाप रूप कर्मों को अनादि आस्तिक भाव मानते हैं।
सो हे बुद्धिमानों ! पक्षपात छोड़ के