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कियत् तो होगई इत्यर्थः। और घठा मग तपोटा पंडूर पर पाउरणा इत्यादि चोपड़ चीकने प्रवर्तने लगे और संवेगीजी संवेगीजी तथा यति जी यति जी कहाने लगे क्योंकि सूत्रों में साधु को श्रमण तथा निग्रंथ तथा भिक्षु कह के लिखा है जैसे कि “ पंचसयसमण सिद्धिं संपरि बुडे " इत्यादि । परन्तु पञ्चसय सम्वेगी सिद्धिंसम्परिवुडे ऐसे कहीं नहीं लिखा है फिर और भी शास्त्रों के विष साधु के अनेक नाम चले हैं तथा साधु गुणमाले दोहा मुनी ऋषितपस्वी संयमी, यती तपोधनसन्त श्रमण साध अणगार गुर बंदू चित हर्षत ॥ १॥ इत्यादि परन्तु यहां भी साधु को संवेगी नहीं लिखा है कारणात् स्वछंद संवेगी कहाने लगे