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नहीं चाहते हैं कि हमको भगवान की पूजा के निमित्त वेशक मारें और न कहते हैं कि भक्ति में हमारे प्राण बेशक हरें इस कारण से वज्रदोष आता है यथा:अन्यस्थानं करोति पापं धर्म स्थानं विवर्जितम् । धर्मस्थानम् करोति पापं वज्र कर्म विवर्द्धते ॥ १ ॥ इति वचनात् ॥
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और तुम ऐसे कहोगे कि कहां तो मृगादि हिंसा में धर्म कहना और कहां तुम फूल फल आदिक की हिंसा को निन्दते हो तो फिर हम उत्तर देते हैं कि उनका हिंसा में धर्म क हना और तुम्हारा हिंसा में धर्म कहना यह दोनों सम ही हैं क्योंकि यद्यपि मिथ्यादृष्टियों के शास्त्रों में स्थूल ही प्राणियों में जीवास्तित्व माना है और स्थावरों में जीवास्तित्व