Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 28
________________ ५१४ गो० जीवकाण्डे __मतिज्ञानविषयं व्यंजनमें दुमर्थमेदु द्विविधमक्कुं २। अल्लि इंद्रियंगळिदं प्राप्तमप्प विषयं व्यंजनमें बुदक्कुं । इंद्रियंगळिदमप्राप्तमप्प विषयमर्थम बुदक्कुमा प्राप्ताप्राप्ताथाळोळु क्रदिदं यथासंख्यं । आ व्यंजनावग्रहभेदंगळेरडु २ व्यापृतौ प्रवृत्तौ भवतः प्रवृत्तंगळप्पुवु। इंद्रियंर्गाळदं प्राप्तायविशेषग्रहणं व्यंजनावग्रहमक्कु-। मिद्रियंगलिंदमप्रामात्य विशेषग्रहणमावग्रहमक्कुमेंदु५ पेळ्दतरं। व्यंजनव्यक्तं शब्दादिजातमें दितु तत्त्वार्थविवरणंगळोळु पेळल्पर्दितु पेळल्पट्टोडिती व्याख्यानदोडन तु संगतमक्कुम दोडे पेळल्पडुगुं। विगतमंजनमभिव्यक्तिर्यस्य तद्वयंजनं । व्यज्यते मृक्ष्यते प्राप्यत इति व्यंजनमें दितंऽजगति व्यक्ति मृक्षणेषु एंदितु व्यक्तिमृक्षणात्थंगळ्गे ग्रहणमप्पुरिदं । शब्दाद्यत्यं श्रोत्रादींद्रियदिदं प्राप्तंमुमा. दोडमन्नेवरमभिव्यक्तमल्तन्नवरमे व्यंजनमेंदु पेललाटूदेकवारजलकण सिक्तनूतनशरावदंते मत्तमभिव्यक्तियागुत्तिरलदे अत्थंमक्कुमें तोगळु पुनः पुनर्जलकणसिच्यमाननूतनशरावमभिव्यक्तसेक. मक्कुमदुकारणादिदं चक्षुमनस्सुगळऽप्राप्तमप्प विषयदोळु प्रथमोद्दिष्टव्यंजनावग्रहमिल्ल। चक्षुमनस्सुगळु स्वविषयमप्पार्थमं प्राप्य पोद्दिये अल्लिज्ञानमं पुट्टिसुगुमें ब नैय्यायिकादिमतं स्याद्वाद ___मतिज्ञानविषयो व्यञ्जनं अर्थश्चेति द्विविधः । तत्र इन्द्रियैः प्राप्तो विषयो व्यञ्जनं तैरप्राप्तः अर्थः । तयोः प्राप्ताप्राप्तयोरर्थयोः क्रमशः यथासंख्यं तौ व्यञ्जनार्थावग्रहभेदौ व्यापृतौ प्रवृत्तौ भवतः । इन्द्रियः । प्राप्तार्थविशेषग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः । तैरप्राप्तार्थविशेषग्रहणं अर्थावग्रह इत्यर्थः। व्यञ्जनं-अव्यक्तं शब्दादिजातं इति तत्त्वार्थविवरणेषु प्रोक्तं कथमनेन व्याख्यानेन सह संगतमिति चेदुच्यते । विगतं-अञ्जन-अभिव्यक्तिर्यस्य तद्व्यञ्जनम् । व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यञ्जनं अञ्जु गतिव्यक्तिम्रक्षणेष्विति व्यक्तिम्रक्षणार्थयोर्ग्रहणात् । शब्दाद्यर्थः श्रोत्रादीन्द्रियेण प्राप्तोऽपि यावन्नाभिव्यक्तस्तावद् व्यञ्जनमित्युच्यते एकवारजलकणसिक्तनूतनशराववत् । पुनरभिव्यक्ती सत्यां स एवार्थो भवति । यथा पुनः पुनर्जलकणसिच्यमाननूतनशरावः अभिव्यक्तसेको भवति । अतः कारणात् चक्षर्मनसोप्रासे विषये प्रथमो व्यञ्जनावग्रहो नास्ति । चक्षुमनसी स्वविषयमर्थ प्राप्यैव तत्र ज्ञानं जनयतः, इति नैयायिकादीनां मतं स्याद्वादतर्कग्रन्थेषु बहुधा निराकृतमित्यत्राहेतुवादे आगमांशे मतिज्ञानका विषय दो प्रकारका है-व्यंजन और अर्थ । उनमें-से इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त विषयको व्यंजन और अप्राप्तको अर्थ कहते हैं। उन प्राप्त और अप्राप्त अर्थों में क्रमसे व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह प्रवृत्त होते हैं । इन्द्रियोंसे प्राप्त अर्थके विशेष ग्रहणको व्यंजना२५ वग्रह कहते हैं, और अप्राप्त अर्थके विशेष ग्रहणको अर्थावग्रह कहते हैं। ___ शंका-तत्त्वार्थसूत्रकी टीकामें कहा है, शब्दादिसे होनेवाले अव्यक्त ग्रहणको व्यंजन कहते हैं। उसकी संगति इस व्याख्याके साथ कैसे सम्भव है ? समाधान-'अंजु' धातुके तीन अर्थ हैं-गति, व्यक्ति और म्रक्षण। यहां उनमें से व्यक्ति और म्रक्षण अर्थ लेकर व्यंजन शब्द बना है । 'विगतं-अंजन-अभिव्यक्तिर्यस्य' जिसका अंजन अर्थात् अभिव्यक्ति दूर हो गया है,वह व्यंजन है। यह अर्थ तत्त्वार्थकी टीकामें लिया है। 'व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजनम्' जो प्राप्त हो,वह व्यंजन है यह यहाँ ग्रहण किया है । शब्द आदि रूप अर्थ श्रोत्र आदि इन्द्रियके द्वारा प्राप्त होनेपर भी जबतक व्यक्त नहीं होता, तबतक उसे व्यंजन कहते हैं। जैसे एक बार जलबिन्दुसे सिक्त नया सकोरा । पुनः व्यक्त होनेपर उसे ही अर्थ कहते हैं। जैसे बार-बार जलबिन्दुओंसे सींचे जानेपर नया ३५ १. म प्राप्तमुमैबुदर्थम । २. ब नमिन्द्रियैरप्राप्तो विषयोऽर्थः । ३. बतार्थयोः । ४. बणे प्रोक्तमनेन सहेदं व्याख्यानं कथं संगत ।। B . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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