Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 43
________________ २२ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नयस्य कल्पना । यथा तैलस्य धारा । अत्र तैलात् धारा भिन्ना प्रदर्शिता । तथापि भिन्ना नास्ति । तथैव सहभावी गुणः क्रमभावी पर्याय इति मिन्नत्वं विवक्षितं, परं परमार्थदृशा मिन्नत्वं नास्ति । तस्माद्यस्य भेद उपचरितो मवेत् स कथ भिन्नत्वेन व्यपदिश्यते । यथा उपचरितगुणे दृष्टान्तवचनं “गौर्दोग्धि" इत्यत्र गौर्न दोग्धि तद्वत् उपचरितगुणोऽपि शक्तित्वं न धत्त इति । ११ । व्याख्यार्थः-पर्यायसे गुण भिन्नरूप नहीं है किन्तु पर्याय ही गुण है। कैसा गुण ? इस आकांक्षापर विशेषण कहते हैं कि सम्मतिग्रंथके सम्मत अर्थात् सम्मतिग्रन्थमें श्रीसिद्धसेन आचार्यद्वारा स्पष्ट वाणीसे कहा गया ऐसा । उनके ग्रन्थकी गाथा यह है कि द्रव्यमें जो क्रमसे गमन करे अर्थात् क्रमसे हो वह पर्याय है तथा एकको अनेक करना यह गुण है और दोनों समान हैं तथापि गुण नहीं कहा जाता है, क्योंकि शास्त्रोंमें पर्यायनयका ही कथन है । १। तात्पर्य-गाथाका यह है कि जैसे क्रमभावीपना पर्यायका लक्षण है, उस ही प्रकार एकको अनेक करना भी पर्यायका दूसरा लक्षण ही है। द्रव्य तो सदा एक रूप ही रहता है, तथा ज्ञान दर्शन आदिकके भेदका करनेवाला भी पर्याय ही कहा जाता है न कि गुण । क्योंकि गुण, भेद करनेवाला नहीं है, इसीसे श्रीभगवानका उपदेश भी द्रव्य तथा पर्यायमें ही है । परंतु गुण और पर्यायमें उपदेश नहीं है। यदि पूर्वोक्त प्रकार गुण पर्यायसे भिन्न नहीं है तो द्रव्य, गुण तथा पर्याय यह तीन नाम जुदे कैसे गिने गये ? इस प्रकार जो कितने ही कहते हैं उनका समाधान करनेके लिये उत्तरार्द्धसे कहते हैं कि जिस गुणका विवक्षासे किया हुआ भेद है वह भिन्नपनेसे कैसे कहा जाय ? भावार्थ-नयोंकी जो कल्पना है वह विवक्षा कहलाती है, जैसे “तैलकी धारा", इस वाक्यमें तैलसे धारा जुदी दिखाई गई है; तो भी यथार्थमें धारा तैलसे भिन्न वस्तु नहीं है, वैसे ही सहभावी साथ होनेवाला गुण, तथा क्रमभावी (क्रमसे होनेवाली) पर्याय, ऐसे गुण पर्यायका भेद केवल विवक्षासे है, परंतु परमार्थदृष्टिसे भेद नहीं है । इसकारण जिसका भेद उपचारसे माना गया हो, वह यथार्थमें भिन्नरूपसे कैसे कहा जा सकता है ? और गुण उपचारसे है, इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे 'गौ दुहती है' यहां गौ नहीं दुहती है। यहांपर दोहनकापना उपचारसे गायमें है न कि यथार्थमें । ऐसे ही उपचारको प्राप्त हुआ गुण भी शक्तिको नहीं धारण करता है ।। ११ ।। अथ ये च गुणः पर्यायाद्भिन्न इति प्रमाणयन्ति तान् दूषयन्नाह । अब गुण पर्यायसे भिन्न पदार्थ है, ऐसा जो प्रमाण करते हैं उनको दूषण देते हुये आगेका सूत्र कहते हैं। गुणो द्रव्यं तृतीयं चेत्तृ तीयोऽपि नयस्तदा । सिद्धान्ते द्रव्यपर्यायाथिकभेदान्नयद्वयम् ॥ १२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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