Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ ९८ ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् निर्युक्ति में कहा है; कि - दृष्टिवादनामक अंगमें सूत्र और अर्थके कथन केलिये इनसे ही प्ररूपण है; और यहां मोक्षका अधिकार है; इसलिये अत्यन्तोपयोगी अर्थात् सारभूत हैं ॥ १ ॥ इस कारण इन नयोंको ही पूर्णरूपसे जान कर बुद्धिमान् प्राणी सब प्रकार से समर्थ श्रीजिनदेव के चरणकमलयुगलका आश्रय करें ॥ १७ ॥ इतिश्रीठाकुरप्रसादशास्त्रिप्रणीत भाषाटीकासमलङक्तायां द्रव्यानुयोगतर्कणायाँ षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ अथोपनयानां प्रकारमाह । अब उपनयोंके भेद कहते हैं । और धर्मी भेदाच्छुद्धस्तथाशुद्धः सभूतव्यवहारवान् ॥१u भावार्थः—तीन ३ उपनय हैं; उनमें प्रथम उपनय सद्भूतव्यवहार है; वह धर्म भेदसे शुद्धसद्ध तव्यवहार तथा अशुद्धसद्ध तव्यवहार इन भेदोंसे दो प्रकार है ॥ १ ॥ Jain Education International त्रयश्चोपनयास्तत्र प्रथमो धर्मधर्मिणोः । । तत्रेयधिकारसूचकविषयसप्तमीयम् । नयानां समीपमुपनयास्त्रस्त्रियसंख्याकाः । तेषु त्रिषु प्रथम आद्य धर्मश्च धर्मी च तयोर्भेदस्तस्मात् । धर्मधर्मिणोरसाधारणं कारणं धर्मः, स च धर्मोऽस्यास्तीति धर्मी तयोरितिद्वन्द्वसमासेन भेदात् द्विधा द्विप्रकारः । एतावता यः प्रथमो भेदो धर्मधर्मिभेदाञ्जातः सोऽपि द्विविधो ज्ञेय एकः शुद्धोऽपरो द्वितीयोऽशुद्धः । कथंभूतः शुद्धस्तथाशुद्धञ्च सद्भूतव्यवहारवान् सद्भयतेऽनेनेति सद्भतः, व्यवह्रियत इति व्यवहारः सद्भूतश्च व्यवहारश्व सद्भूतव्यवहारौ । शुद्धाशुद्धौ तो विद्यतेऽस्येतिसद्भूतव्यवहारवान् । शुद्धयोर्धर्मधर्मिणोर्भेदाच्छुमभूतव्यवहारः ॥ १ ॥ अशुद्धधर्मधर्मिणोर्भेदादशुद्धसद्भूतव्यवहारः ॥२॥ सद्भूतस्त्वेकं द्रव्यमेवास्ति भिन्नद्रव्यसंयोगापेक्षयेत्येस्ति । व्यवहारस्तु भेदापेक्षयेत्येवं निरुक्तिः ॥ १॥ व्याख्यार्थ:: - तत्र ( उसमें ) यह जो सप्तमी विभक्ति है; वह अधिकारके ज्ञापन (जनाने) के लिये है; अर्थात् अब उपनयोंका अधिकार है । नयोंके समीपवर्ती जो हों वह उपनय हैं; वह तीन अर्थात् तीन संख्यायुक्त हैं, उन तीनोंमेंसे प्रथम भेद धर्म तथा धर्मीके भेदसे है; धर्म और धर्मी इन दोनोंमें जो असाधारण कारण है; उसको धर्म कहते हैं; वह असाधारण कारणरूप धर्म जिसके है; उसको धर्मी कहते हैं धर्म तथा धर्मिन् शब्दका द्वन्द्व समास करनेसे “धर्मधर्मिणोः " ऐसा पाठ बना है। इन धर्म धर्मीके भेदसे उत्पन्न हुआ प्रथम भेद दो प्रकारका है । अर्थात् धर्म धर्मके भेदसे जो प्रथम भेद हुआ है; वह भी दो प्रकारका जानना चाहिये। एक शुद्ध और दूसरा अशुद्ध । वह शुद्ध और अशुद्ध कैसा है; कि - सद्भतव्यवहारसे युक्त है । सद् जिसके द्वारा हो उसको सद्भत । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226