Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 208
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १८७ व्याख्या । अगुरुलघुता अगुरुल घुर्नाम गुणः सा कीदृशी सूक्ष्मा आज्ञाग्राह्यत्वात्, यतः “सूक्ष्म जिनोदितं सत्त्वं हेतुभिर्नेव हन्यते । आज्ञा सिद्ध तु तग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ।।" पुनः कीदृशी वाग्गोचरविजिता वचनद्वारा वक्त मशक्या । यतः-"अगुरुलघुपर्याया सूक्ष्मा अवाग्गोचराः" इति अगुरुलघुनाम्ना पञ्चमो गुणोऽगुरुलधुत्वमिति ध्येयम् । अथ "प्रदेशत्वमविभागी पुद्गल: स्वाश्रयावधि" इति । अविमागी पुद्गल इति यावत् क्षेत्रे तिष्ठतीति तावत् क्षेत्रव्यापिष्णुत्वं प्रदेशत्वगुणः । यस्य विमागो न जायते विमक्तव्यवहारता न स्यात् पुनर्यावत् क्षेत्रमास्थाय तिष्ठति स्थिती तावत्क्षेत्रावगाहित्वं प्रदेशत्वम् । पुनः कोदृशं स्वाथ स्वशब्देनात्मा पुद्गलात्मककस्तस्य य आधारः आश्रयः स एववाधिमर्यादा यस्य तत्स्वाश्रयावधि । एतावता तदेवार्थत्वं स्वेन यावत्क्षेत्र स्थितं तावति क्षेत्र आश्रयाववित्वमप्यस्तीति ज्ञेयम । इति षष्ठो गुणः । ६। ॥ ४॥ व्याख्यार्थः-अगुरुलघुता अगुरुलघुनामा गुण है; वह अतिसूक्ष्म है; अतएव जिनशास्त्रकी आज्ञासे ग्रहण करने योग्य है। क्योंकि-"जिन भगवानसे कहाहुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है; वह हेतुओंसे खण्डित नहीं होता अतः सूक्ष्मतत्त्वोंको उनकी आज्ञासे ही मानलेना चाहिये क्योंकि-जिनेन्द्र देव मिथ्यावादी नहीं हैं। १ ।” ऐसा कहा है। पुनः वह अगुरुलघुतारूप गुण कैसा है; कि-वाणीकी गोचरतासे वर्जित है; अर्थात् उसका कथन वाणीसे नहीं हो सकता क्योंकि-"अगुरुलघुपर्याय सूक्ष्म हैं; वचन के अगोचर हैं" ऐसा वचन है । ऐसे अगुरुलघु नामसे जो पंचम गुण है; उसको अगुरुलघुत्व समझना चाहिये । ५ । अब “प्रदेशत्वमविभागो पुद्गलः स्वाश्रयावधि" इस उत्ताका व्याख्यान करते हैं । विभागरहित पुद्गल जितने क्षेत्रमें स्थित रहता है; उस क्षेत्रमें व्यापनशील प्रदेशत्व गुण है । तात्पर्य यह कि जिस पुद्गलका विभाग नहीं होता अर्थात् विभक्तव्यवहारता नहीं हो सकती और ऐसा वह अविभाग पुद्गल परमाणु जितने क्षेत्र में रहे उसने ही क्षेत्रका अपनी स्थितिमें अवगाहन करनेवाला जो है, वह प्रदेशत्व है। पुनः वह प्रदेशत्व कैसा है; कि-स्वाश्रयावधि है। यहां स्वशब्दसे अपना ग्रहण है इससे अविभागी पुद्गलात्मक अपना आधार ( अधिकरण ) ही जिसकी मर्यादा है; इससे यह सिद्ध हुआ कि वह जितने क्षेत्रमें स्थित है; उतने ही क्षेत्रमें आश्रयावधित्व भी है ऐसा जानना । यह प्रदेशत्वनामक षष्ठ गुण है । ६ । ॥ ४ ॥ चेतनत्वमनुभूतिरचेतनमजीवता । रूपादियुक्त्वमूर्त्तत्वममूर्तत्वं विपर्ययात् ॥ ६ ॥ भावार्थ:-आत्माका जो अनुभव है वह चेतनत्व सप्तम गुण है। जीवरहितता स्वरूप अचेतनत्व अष्टम गुण है। रूपआदिसहित मूर्त्तत्वनामक नवम गुण है। इसके विपर्ययसे अर्थात् रूपआदिसहित अमूर्त्तत्वनामा दशम गुण है ॥५॥ व्याख्या । चेतनत्वमात्मनोऽनुभूतिरित्यनुभवरूपगुणः कथ्यते । योऽहं सुखदुःखादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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