Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 223
________________ २०२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् स्वभावके न अंगीकार करनेपर द्रव्यके संयोगसे अन्यद्रव्यता होती है। इससे धर्म अधर्म आदि द्रव्योंके तथा जीव और पुद्गलके एक प्रदेशमें अवगाहना रूप अवगाढ कारणसे जो कार्यसंकरता नहीं होती है सो अभव्यस्वभावसेही नहीं होती है । और उन उन द्रव्योंके उन उन द्रव्योंके कार्योंका हेतुरूपसे जो कल्पन है वह भी इस अभव्यस्वभावमें ही गर्भित है । तात्पर्य यह कि आत्मा आदि द्रव्योंके अपनेमें रहनेवाले अनन्त कार्योंको उत्पन्न करनेकी जो शक्ति है उस शक्तिसे तो भव्यभाव है और उन उन सहकारी कारणोंके सन्निधानसे उन उन कार्योंकी उत्पादक जो शक्ति है वह अभव्य भाव है । और ऐसा माननेसे भव्यभावके साथ अतिव्याप्ति नहीं होती है । यह हरिभद्राचार्यजी कहते हैं ॥२५॥ पारिणामिकस्वभावः परमभाव आहितः । विनैनं मुख्यता द्रव्ये प्रसिद्धया दीयते कथम् ॥ २६ ॥ भावार्थः-पारिणामिकस्वभाव जो है उसको परमभाव कहते हैं। इस परमभावके विना द्रव्यमें प्रधानता प्रसिद्धरूपसे कैसे दी जावे ? ॥ २३ ॥ व्याख्या। स्वलक्षणीभूतपारिणामिक भावप्रधानतया परममाव आहितः । यथा ज्ञानस्वरूप आत्मा । परिणामे भव: पारिणामिकः स चासो स्वभावश्च पारिणामिकस्वभावः । परं प्रकृष्टं ज्ञानादि परमं तच्च भावः परमभाव इत्यनेनात्मा ध्वन्यते । यदि हि परमभावः स्वभावो न कथ्यते तदा द्रव्यविषये प्रसिद्धतया प्रसिद्धरूपं कथं दीयते । अनन्तधर्मात्मकवस्तुन एकधर्मपुरस्कारेणालाप्यते यत्तदेव परमताया लक्षणं ज्ञेयमिति । एते एकादश स्वभावा सर्वेषां द्रव्याणां धारणीयाः। एनं परमभावं विना द्रव्ये द्रब्यविषये मुख्यता प्राधान्यं प्रसिद्धया प्रसिद्धरूपेण कथं दीयत इत्येवमिति ॥ २६ ॥ व्याख्यार्थ:--अपने निजलक्षणभूत पारिणामिक भावकी प्रधानतासे परम भाव कहा गया है। जैसे-आत्मा ज्ञानस्वरूप है । परिणाममें जो हो उसे पारिणामिक कहते हैं । पारिणामिक ऐसा जो स्वभाव वह पारिणामिक स्वभाव है। उत्कृष्ट जो ज्ञान आदि सो परम हैं । परम जो भाव वह परम भाव है और इससे आत्मा ध्वनित होता है ।११। यदि परम भावको स्वभाव नहीं कहैं तो द्रव्यमें प्रसिद्धरूप कैसे दिया जावे ? क्योंकि, अनन्तधर्मवाले द्रव्यको जो एक धर्मको मुख्य करके उससे कहा जावे वही परम भावका लक्षण है, ऐसा जानना चाहिये। ये पूर्वोक्त एकादश ( ग्यारह ) स्वभाव छहों द्रव्योंके विषयमें ही धारण करने चाहिये । इस अंतिम परमभावके बिना द्रव्यके विषय में प्रधानता प्रसिद्ध रूपसे कैसे योजित कर सकते हो ? । इस रोति से अस्तित्व आदि सब भावों की आवश्यकता दर्शायी गई है ।। २७ ।। इत्थं च सामान्यतया स्वभावा, एकादशामी कथिताः श्रुतोक्ताः' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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