Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 225
________________ २०४] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गुण हैं । इन सोलह विशेष गुणोंमें जीवके छः छः गुण हैं, पुद्गलके भी छः छः गुण हैं, और अन्य धर्मादि चारों द्रव्योंमें प्रत्येकके तीन तीन गुण हैं। अंतके चेतनत्व आदि चार गुण अपनी जातिकी अपेक्षासे सामान्य गुण हैं और परजातिको अपेक्षासे विशेष गुण हैं । इस प्रकार गुणोंका अधिकार है ॥२७॥ इति श्रीआचार्योपाधिधारक-पं० ठाकरप्रसाद प्रणीत-माषाटीकासमलंकृतायां द्रव्यानुयोगतकंणाव्याख्यायामेकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ अथ स्वभावाध्यायं व्याचिख्यासुराह । अब इस द्वादश ( बारहवें ) अध्यायमें स्वभावोंका निरूपण करनेकी इच्छासे यह श्लोक कहते हैं। चैतन्यं चेतना ख्याता त्वचैतन्यमचेतना । चेतनत्वं विना जन्तोः कर्माभावो भवेद्धवम् ॥ १॥ भावार्थः-चैतन्य चेतनाका नाम है और अचैतन्य अचेतनाका नाम है। इस चैतन्य नामक गुणके विना जीवके निश्चय करके कर्मोंका अभाव हो जावे ॥१॥ व्याख्या । चिती संज्ञाने चेतति चेतयते वा चेतनस्तस्य भावश्चैतन्यं चेतनाव्यवहारश्चेतनस्वभावः १ तद्विपरीतमचैतन्यमचेतनस्वभावः २ चेतनत्वं विना जन्तोर्जीवस्य कर्माभावो मवेदिति रागद्वेषरूपं कारणं चेतना ज्ञानावरणादिकर्मणोऽभावः । यतः "स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुनाश्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम । १।" एवं यदि जीवस्य सर्वथा अचेतनस्वभाव: कर्माभाव एवेति ॥ १॥ व्याख्यार्थ--'चिती' धातुका संज्ञान अर्थात् जानना अर्थ है। जो स्वयं चेतै वा दूसरोंको चितावै उसको चेतन कहते हैं। उस चेतनका जो भाव (धर्म) है उसको चैतन्य कहते हैं । और चेतनाका जो व्यवहार है सोही चेतनस्वभाव है । १ । तथा चेतनस्वभावसे जो विपरीत है वह अचैतन्य वा अचेतन स्वभाव है । २ । इनमें चेतन स्वभावके विना अर्थात् चेतनस्वभाव न माननेपर जीवके कर्मोंका अभाव होगा, क्योंकि कर्मबन्धमें जो राग तथा द्वेषरूप कारण है वह चेतना अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभाव है अर्थात् चेतनासे ही कर्मों का बन्ध होता है। क्योंकि जैसे तैल आदिसे लिप्त शरीरवाले जीवका शरीर धूलसे लिप्त हो जाता है, ऐसेही राग तथा द्वेषसे आर्द्राभूत (गीले हुए) जीवके ही कर्मोंका बन्धन होता है। इस कथनके अनुसार यदि जीवके चेतन स्वभाव न मानकर, सर्वथा अवेतन स्वभावही माने तो कर्मों का अभावही होगा ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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